प्रिय विद्यार्थियों, इस पोस्ट में Indra Suktam (2.12.3) अर्थात् इन्द्र सूक्त के मंत्र संख्या-3 का ससंदर्भ तथा सप्रसंग व्याख्या हिंदी तथा संस्कृत दोनों में है। इसके अंत में व्याकरणात्मक टिप्पणी भी दिया गया है। यह देहली विश्वविद्यालय परास्नातक DU, M.A Sanskrit का previous year प्रश्न पत्र का उत्तर है।
1. निम्नलिखित मन्त्रों में से किन्हीं दो मन्त्रों की व्याख्या कीजिए, जिनमें से एक संस्कृत में हों।
Explain any two of the following mantras out of which one should be in Sanskrit.
क) यो ह॒त्वाहि॒मरि॑णात्स॒प्त सिन्धू॒न्यो गा उ॒दाज॑दप॒धा ब॒लस्य॑।
यो अश्म॑नोर॒न्तर॒ग्निं ज॒जान॑ सं॒वृक्स॒मत्सु॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥ {Indra Suktam (2.12.3)}
हिन्दी व्याख्या
Indra Suktam (2.12.3)
पदपाठ
यः। ह॒त्वा। अहि॑म्। अरि॑णात्। स॒प्त। सिन्धू॑न्। यः। गाः। उ॒त्ऽआज॑त्। अ॒प॒ऽधा। ब॒लस्य॑। यः। अश्म॑नोः। अ॒न्तः। अ॒ग्निम्। ज॒जान॑। स॒म्ऽवृक्। स॒मत्ऽसु॑। सः। ज॒ना॒सः॒। इन्द्रः॑॥
अन्वय
य: अहिं हत्वा सप्त सिन्धून् अरिणात् य: गा: उदाजत् यः बलस्य अपधा अश्मनोः अन्त: अग्निं जजान समत्सु संवृक् जनास: सः इन्द्रः।
सन्दर्भ
प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद संहिता के द्वितीय मंडल के द्वादश सूक्त का तृतीय मंत्र है जिसके ऋषि गृत्समद, देवता इंद्र व छन्द त्रिष्टुप् हैं।
प्रसंग
प्रस्तुत मंत्र में ऋषि गृत्समद के समीप आए हुए जनों वा दैत्यों के समक्ष इन्द्र के महान गुणों का वर्णन ऋषि करता है।
अर्थ
(जनासः) हे विद्वानो ! (यः) जो (अहिम्) मेघ को (हत्वा) मारकर (सप्त) सात प्रकार के (सिन्धून्) समुद्रों को वा नदियों को (अरिणात्) चलाता है (यः) जो (गाः) पृथिवियों को (उदाजत्) ऊपर प्रेरित करता अर्थात् चक्रीय नियम से चला रहा है (यः) जो (बलस्य) बल को (अपधा) धारण करनेवाला और जो (अश्मनः) पाषाणों वा मेघों के (अन्तः) बीच (अग्निम्) अग्नि को (जजान) उत्पन्न करता तथा (समत्सु) संग्रामो में (संवृक्) सब पदार्थों को अलग कराता है (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र नामक सूर्यलोक है , यह जानना चाहिये। { महर्षि दयानन्द के मत में }
व्याख्या
आचार्य सायण अपने ऋग्वेदभाष्य में कहते है कि महाभारत में इस सूक्त के विषय में कहा गया है प्राचीन काल में इन्द्रादि के वैन्ययज्ञ में गृत्समद ऋषि भी आये, इन्द्र के दमन की कामना से दैत्य वहाँ उपस्थित हुए तत्पश्चात् इन्द्र ने तत्काल अपना स्वरुप ऋषि गृत्समद के रुप में परिवर्तित कर लिया। दैत्यों ने निश्चयपूर्वक कहा कि “यह ही इन्द्र है” परन्तु ऋषि ( वास्तव में इन्द्र ) इन्द्र की तुलना अपने योग्य नहीं समझते अतएव स्वयं उनके स्वरुप की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि-
[यः अहिम् हत्वा]
वह आदित्य,जलीय मेघों अथवा कास्मिक मेघों ( Cosmic Clouds ) को ताड़ित करता हुआ चलाता है अर्थात् जल के वाष्पीकरण में, उसके संघनन में तथा उसके वर्षण में मुख्यतः सूर्य की प्रधान भूमिका होती है। चूंकि काॅस्मिक मेघ से ही सूर्यपृथिवी आदि की उत्पत्ति होती है परंतु निर्माणाधीन पृथिवी के परितः काॅस्मिक मेघ के संघनन के लिए सूर्य की प्रधान भूमिका होती है।
अत्र प्रमाणम्
1. पर्वतान्प्रकुपिताँ अरम्णात्… Indra Suktam (2.12.3)
अर्थात् कम्पायमान पर्वतों (मेघ, जो पृथिवी आदि की उत्पत्ति के उपादान कारण है ) को क्रीड़ापूर्वक उत्पत्ति के लिए प्रेरित करता है ( अरम्णात् रमु क्रीडायाम् अन्तर्भावितण्यर्थस्य सायणभाष्य )
2. पर्वतः = मेघनाम ( निघण्टु 1.10 )
[सप्त सिन्धून् अरिणात्]
जो वृहत् जलराशि को नियंत्रणपूर्वक चलाता है।
{सर्वविदित है कि सूर्य के किरणों के 7 वर्णों को अश्वों से उपमित किया जाता है अतः अश्वों को सैन्धव भी कहा जाता है, छान्दस प्रयोग में सिन्धु को सैन्धव माना जा सकता है, {अत्र प्रमाणम् – अथाप्यस्यां ताद्धितेन कृत्स्नवन्निगमा भवन्ति ( निरुक्त 2.5 )} जहाँ तद्धितरहित गौ पद में न दिखने वाला तद्धितप्रत्यय प्राप्त होता हैं। इसका तात्पर्य है कि सूर्य अपने सप्त सिन्धून् ( 7 वर्णयुक्त किरणों को तथा किरणों से उत्पन्न वनस्पति आदि को ) नियंत्रित करता है।
[यः गाः उदाजत्]
जो गौऔं को ऊपर ले जाता है। सामान्यतः लोक में “गौ पद” को सास्नादिमान् प्राणी के रूप में प्रयोग किया जाता है परन्तु वेद में यह विविध नामों में प्रयुक्त होता है, यथा
गौरिति पृथिव्या नामधेयम्, यद् दूरं गता भवति, यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति ( निरुक्त 2.5 )
अतः स्पष्ट है कि वह सूर्य, पार्थिवलोकों को प्रेरित व आकर्षित करता है।
आगे कहा – आदित्योऽपि गौरुच्यते। (आदित्यस्य सुषुम्णः) सोऽपि गौरुच्यते। सर्वेऽपि रश्मयो गाव उच्यन्ते। यह सभी प्रकरण भी महत्त्वपूर्ण है।
[यः बलस्य अपधा]
जो गुरुत्वाकर्षणादि बलों के द्वारा दूरस्थ लोकों को भी धारण करता है।
महर्षि यास्कानुसार
1. बलं भरं भवति। बिभर्तेः। (निरु. 3.9)
2. बलं वा द्रविणं यदेनेनाभिद्रवन्ति। (निरु. 8.1) अर्थात् जो बल के द्वारा ही आकाशगंगा के परितः गमन करता व स्वयं के परितः ग्रह-उपग्रहों को गमन कराता हैं।
[अश्मनोः अन्तः अग्निः जजान]
जो दो मेघों के मध्य विद्युताग्नि को उत्पन्न करता है। ( अश्मनः = मेघनाम निघण्टु 1.10 )
ऊपर दर्शाए गए वाक्य में बल ही द्रविण है जो बल का धारक , वह इन्द्र हैं। अतः **आचार्य क्रौष्टुकि** कहते है –
इन्द्रः (द्रविणस्य दाता) द्रविणोदा ( निरु. 8.2 )।
अतएव इन्द्र वा सूर्य, मेघों को विविध बल प्रदान कर विद्युताग्नि उत्पन्न करता है तथा पाषाणों ( आकाशीय पिण्डों ASTEROIDS ) को अग्नियुक्त करता है।
[समत्सु संवृक्]
जो संग्राम में प्रतिकर्षण बल वाला होता है। { समत्सु = संग्रामनाम , संवृक् = बलनाम निघण्टु 2.9/ 2.17 }
आकाशगंगा के परिभ्रमण में विविध प्रकार के आकाशीय पिण्डों को सूर्य अपने प्रतिकर्षण बल से दूर करता है जो यहाँ संग्राम के रुप में प्रस्तुत है।
[जनासः सः इन्द्रः] हे जनों ! ऐसे महान गुणों से युक्त वह इन्द्र वा सूर्य है उन्हें जानो।
टिप्पणी
1. हत्वा – हृञ् हरणे + क्त्वा
2. जजान – जनि प्रादुर्भावे + तिप् (लिट्लकार परस्मैपद प्रथम एकवचन)
3. जनास: – जना: (सम्बोधन बहुवचन छान्दस प्रयोग)
संस्कृत व्याख्या
Indra Suktam (2.12.3)
पदपाठः
यः। ह॒त्वा। अहि॑म्। अरि॑णात्। स॒प्त। सिन्धू॑न्। यः। गाः। उ॒त्ऽआज॑त्। अ॒प॒ऽधा। ब॒लस्य॑। यः। अश्म॑नोः। अ॒न्तः। अ॒ग्निम्। ज॒जान॑। स॒म्ऽवृक्। स॒मत्ऽसु॑। सः। ज॒ना॒सः॒। इन्द्रः॑॥
अन्वयः
जनास: य: अहिं हत्वा सप्त सिन्धून् अरिणात् य: गा: उदाजत् यः बलस्य अपधा अश्मनोः अन्त: अग्निं जजान समत्सु संवृक् सः इन्द्रः।
सन्दर्भः
प्रस्तुतमन्त्रः ऋग्वेदसंहितायाः द्वितीयमंडलस्य द्वादशसूक्तस्य तृतीयमन्त्रोऽस्ति, तस्य ऋषिः गृत्समद: देवता इन्द्रः छन्दः त्रिष्टुप् च।
प्रसङ्गः
प्रस्तुतमन्त्रे ऋषिः गृत्समदसमीपे आगताः जनाः तान् ऋषि: गृत्समदः प्रस्तौति इन्द्रस्य महतीगुणम्।
अर्थः
(यः) इन्द्र: (हत्वा) हननं कृत्वा(अहिम्) मेघम् (अरिणात्) गमयति (सप्त )सप्तविधान् (सिन्धून्) समुद्रान् नदी: वा (यः) इन्द्र: (गाः) पृथिवीः (उदाजत्) ऊर्ध्वं क्षिपति आकृषतीति वा (य:) इन्द्र: (बलस्य) बलं बलेन वा { विभक्ति व्यत्यय: } (अपधा) अपदधाति। (अश्मनोः) पाषाणयो: मेघयो: वा (अन्तः) मध्ये (अग्निम्) पावकम् (जजान) जनयति (समत्सु) संग्रामेषु (संवृक्) यः सम्यग्वर्जयति (जनासः) हे जना:! (सः) (इन्द्रः) स: महतीगुणसम्पन्नं इन्द्रोऽस्ति।।
व्याख्या
यः सूर्यलोकः मेघं वर्षयित्वा समुद्रान् भरति यथा सर्वे जनाः जानन्ति सूर्यः केन प्रकारेण वाष्पोत्सर्जनस्य क्रियया रसं जलं वा अवशुष्यति एवम्भूता यदा ऋत्वाद्यनुकूलता भवति तदा मुञ्चति रसं जलं वा। विविधानि कार्याणि वर्तन्ते तस्य वर्णयत्यत्र यो हत्वाहिमिति। अहिं हत्वा हरणं कृत्वा तर्हि अहिं कस्मात्? अहिः अयनात्। एति अन्तरिक्षे। अयमपीतरोऽहिरेतस्मादेव। निर्ह्रसितोपसर्गः। आहन्तीति। (निरु. 2.17) ‘अय गतौ’ इति धातोः गमनशीलगुणत्वात् मेघमपि अहिः एति अन्तरिक्षे गमयति आकाशमार्गे एतस्मादेव। आङ्पूर्वकं हन हिंसागत्योः इति प्रयुक्तात् अहिं निष्पन्नम्। यो हिंसापूर्वकं गतिः करोति सोऽपि अहिरुच्यते एतस्मादाचार्याग्निव्रतेन उच्यते गतिशीलतरंगः दुष्टः सर्पश्च अहिरिति। तस्य हत्वा नियंत्रितं कृत्वा सप्तसिन्धून् गमयति अरीणात् रीङ् स्रवणे क्र्या. इति गमनकर्माः (छान्दसप्रयोगः) । यथा नु निरुक्ते सप्त संख्याः आगताः तदा तस्यार्थोऽस्ति सप्तादित्यरश्मयः।
अत्र प्रमाणानि वर्तन्ते
सप्तपुत्रं.. सप्त सृप्ता संख्या सप्तादित्यरश्मयः (निरु. 4.26)
सप्त ऋषयः सप्तादित्यरश्मयः (निरु.12.37-38)
तद् यदेतैरिदं सर्वं सितं तस्मात् सिन्धवः (जै.उ. 1.29.9)
एतस्मात् यदि सप्तसंख्या वेदवेदाङ्गादौ प्राप्ता तर्हि प्रायेण तस्य आधिदैविकार्थः सप्तादित्यरश्मयः इति वेद्यम्। अत एव सर्पणशीलत्वात् सप्तसंख्या प्रयुङ्क्ते इत्यस्मात् सिन्धुर्नाम नदी समुद्रो वा परंतु आदित्यविषये सप्तसिन्धवः सप्तश्वेतादिवर्णरश्मयः औचित्यं दधाति।
तर्हि अहिं हत्वा सप्त सिन्धून् अरिणात् इति भावार्थोऽस्ति अन्तरिक्षे गमनशीलाः विकृततरंगसमूहान् हननं कृत्वा नियंत्रणं कृत्वा वा सप्त सिन्धून् सप्तश्वेतादिवर्णरश्मीन् प्रेरितं यः सूर्यः।
ननु सूर्यस्य स्थितिः सर्वाणि ग्रहाणि मध्ये प्रसिद्धं तस्य प्रयोजनं किं अत एव यो गारिति। गौः पृथिवीनाम एतस्मात् आदित्यः पृथिवीं उदाजत् आकर्षणप्रतिकर्षणद्वारैव स्थापयति तस्याः उत्पत्तिपालनादिकारणात् सदैव दधाति इतः निरुपणं भवेत् किं आकर्षति अपरं किमनेन आकर्षितं कृत्वा दधाति तर्हि बलस्य अपधा गुरुत्वीयबलेन अपदधाति पोषयतीति वा। यतोहि कोऽपि वक्रीयगतिं कुर्वन् तिष्ठति तस्य बलस्य निर्धारकः मध्यकेन्द्रोऽस्ति एतस्मात् सूर्यः बलपूर्वकं स्थापयामास अधुना पर्यन्तं स्थापितम्।
अश्मनोः अन्त: अग्निं जजान इन्द्रः सूर्यो वा मेघस्यान्ते विद्युताग्निं जनयति। ( अश्मनः = मेघनाम निघण्टु 1.10 ) वर्षाकाले वायुमण्डलीयदाबमाध्यमेन मेघः वर्षणसामर्थ्ययुक्तोऽस्ति तदा तीव्रविद्युतः सूर्यसामर्थ्यात् अग्निं जनयति तस्य संघननात् वर्षा भवति।
समत्सु संवृक् [समत्सु=संग्रामनाम (निघ.2.17)]प्रत्येकसौरमण्डले बहूनि पाषाण्डानि आगतानि तस्य निवारणार्थं प्रयत्नकार्यं सङ्ग्राम इति वैदिकवार्तायाम्। सर्वेषाम् ग्रहोपग्रहाणां केवलमेकमधिपतिरस्ति तस्य नाम सूर्यः तस्मिन्युद्धे सर्वाणि अपकारकानि वर्जयति अपवारयति। स एव सर्वेषां पालयिता पोषयिता एतस्मात् हे जनाः! तदिन्द्रस्य उचितानुचितप्रयोगं ज्ञात्वा कार्यं करणीयाः।
व्याकरणात्मक टिप्पणी
1. हत्वा – हृञ् हरणे + क्त्वा
2. जजान – जनि प्रादुर्भावे + तिप् (लिट्लकार परस्मैपद प्रथम एकवचन)
3. जनास: – जना: (सम्बोधन बहुवचन छान्दस प्रयोग)
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FAQS
1. इन्द्र कौन हैं?
उत्तर- इन्द्रसूक्त के अनुसार इन्द्र देवों का राजा है।
2. ऋग्वेद में कितने इन्द्रसूक्त है?
उत्तर- 250
3. इन्द्रसूक्त 2.12 में कितने मंत्र है?
उत्तर- 15
4. इन्द्रसूक्त 2.12 के भाष्य में महर्षि दयानन्द ने इन्द्र का अर्थ क्या किया है?
उत्तर- सूर्य
5. इन्द्र किस स्थान के देवता है?
उत्तर- अन्तरिक्षस्थान