नैषधीयचरितम् Naishadhiyacharitam

प्रिय विद्यार्थियों, इस पोस्ट में नैषधीयचरितम् Naishadhiyacharitam का ससंदर्भ तथा सप्रसंग व्याख्या है। इसके अंत में व्याकरणात्मक टिप्पणी भी दिया गया है। यह देहली विश्वविद्यालय परास्नातक DU, M.A Sanskrit का previous year प्रश्न पत्र का उत्तर है।

Q1. निम्नलिखित पद्यों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए –
Explain the following:

अनल्पदग्धारिपुरानलोज्ज्वलै:
निजप्रतापैर्वलयं ज्वलद्भुवः।
प्रदक्षिणीकृत्य जयाय सृष्टया
रराज नीराजनया स राजघः॥

अन्वय

अनल्पदग्धारिपुरानलोज्ज्वलै: निजप्रतापै: ज्वलद्भुवः वलयं जयाय प्रदक्षिणीकृत्य नीराजनया सृष्टया स राजघः रराज।

सन्दर्भ

प्रस्तुत पद्य नैषधीयचरितम् के प्रथम सर्ग से उद्धृत है जिसके रचयिता महाकवि श्रीहर्ष है। जिन्होने शास्त्रार्थ में उदयनाचार्य को परास्त किया तथा खण्डनखण्डखाद्य नामक ग्रन्थ की रचना भी की।

प्रसंग

प्रस्तुत पद्य में राजा नल के पृथिवी विजय, दिग्विजय की चर्चा की जा रही है।

अर्थ

(अनल्पदग्धारिपुरानलोज्ज्वलै:) अन्यून रूप से जलते शत्रुओं के नगरों की अग्नि से प्रज्वलित स्वप्रताप वाले (ज्वलद्भुव:) जलते हुए पृथिवी के (वलयम्) मण्डल को (जयाय) जीतने के लिए (प्रदक्षिणीकृत्य) प्रदक्षिणा करके (नीराजनया) आरती उतारते हुए (सृष्टया) प्रजाओं के द्वारा (सः राजघ:) उस राजाओं के हन्ता ने (रराज) शासन किया।

व्याख्या

महाकवि श्रीहर्ष राजा नल के पराक्रम तथा उनके द्वारा प्राप्त ख्याति का वर्णन करते हुए कहते हैं –

(क) अनल्पदग्धारिपुरानलोज्ज्वलैः

कम न जलने वाले अर्थात् बहुत अधिक जलते हुए अरि (शत्रुओं) के नगरादि के अग्नि ज्वालाओं से प्राप्त उज्ज्वलता रूपी कान्ति वाले वे राजा नल।

(ख) निजप्रतापै:

ऐसी कान्ति को प्राप्त करके स्वयं कान्तिमान हो गए।
अर्थात् शत्रुओं की समस्त सेना व नगरादि पर विजय प्राप्त करके वे यशप्राप्त राजा नल सुशोभित हो रहें हैं। यहाँ महाकवि ने बहुत सुन्दर रुप से राजविजय का आरोपन राजा नल की यशशोभा पर किया हैं।

(ग) ज्वलद्भव: वलयम् जयाय

जलते हुए भूमि को मण्डल के समान मानते हुए, राजा नल ने सम्पूर्ण भूमि पर विजय प्राप्त कर ली थी। जिसकी उपमा कवि ने जलते हुए नगरों से की हैं।अत: जब सम्पूर्ण भूमि ही मानो ज्वलित हो रही है तो ऐसे भूमण्डल को जितने की इच्छा करते हुए।

(घ) प्रदक्षिणीकृत्य

प्रदक्षिणा करके। चूकिं दिग्विजय में सम्पूर्ण भूमण्डल की परिक्रमा करनी ही होती है। अत: जिन शत्रुओं को जीतने के लिए उनसे इतर के राज्यों को जीतने की अभिलाषा से भ्रमण करके।

(ङ) नीराजनया सृष्टया

आरती उतारते हुए प्रजाओं व पुरोहितों के द्वारा अर्थात् राजा नल की नीति-निपुणता व राजकौशल से सभी प्रजा परिचित थें। उन्होंनें इस बात को जानकर कि अब हम उनके राजध्वज के नीचे जीवन व्यतीत करेंगे। अत: उन प्रजा के द्वारा प्रसन्नता व्यक्त किया गया। उसी को ही कवि ने उपमा के द्वारा प्रकट किया कि सम्पूर्ण भूमि चूकिं आरती की थाल के समान ,एक दीपक के समान प्रज्वलित हो रही है और राजा नल परिक्रमा कर रहे है । वस्तुत: कवि कल्पना है कि पृथिवी के प्रजा जन ही उनकी विजययात्रा के शुभाशीष स्वरुप उनकी आरती उतार रहें है।

(च) सः राजघः रराज

वह राजा नल सम्पूर्ण दुष्ट राजाओं को नष्ट करने वाले होते हुए शासन करने लगा।

विशेष

1.छन्द – वंशस्थ [ जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ ]
2.अलंकार – उत्प्रेक्षा [ भवेत्संभावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना ]
3.राजघ: – राज्ञां हन्ता [ षष्ठी तत्पुरुष ]
4.रराज – राजृ दीप्तौ +लिट् लकार प्र.पु.एक.वचन
5.निजप्रतापै: – निजस्य प्रताप: तै: निजप्रतापै: [ षष्ठी तत्पुरुष ]।।

 

 महीभृतस्तस्य च मन्मथश्रिया
निजस्य चित्तस्य च तं प्रतीच्छाया ।

द्विधा नृपे तत्र जगत्त्रयीभुवां
नतभ्रुवां मन्मथविभ्रमोऽभवत्।।

अन्वय

तस्य महीभृत: मन्मथाश्रिया च तं प्रति निजस्य चित्तस्य इच्छाया जगत्त्रयी भुवां च नत भ्रुवां तत्र नृपे द्विधा मन्मथविभ्रम: अभवत् ।

सन्दर्भ

प्रस्तुत पद्य नैषधीयचरितम् के प्रथम सर्ग से उद्धृत है जिसके रचयिता महाकवि श्रीहर्ष है। जिन्होने शास्त्रार्थ में उदयनाचार्य को परास्त किया तथा खण्डनखण्डखाद्य नामक ग्रन्थ की रचना भी की।

प्रसंङ्ग

प्रस्तुत पद्य में राजा नल के कान्ति का अपरोक्ष रुप से वर्णन किया जा रहा है तथा उनको चाहने वाली स्त्रियों की व्याख्या की जा रही है।

अर्थ

(तस्य महीभृत:) उस पृथिवी के पालक राजा नल के (मन्थमश्रिया) कामजनित शोभा के कारण च (तं) प्रति राजा नल के प्रति अपने चित्त की कामना के कारण त्रिलोक में उत्पन्न होने वाली तथा (नतभ्रुवां) वक्र भौहों वाली स्त्रियों का (तत्र नृपे) उस राजा नल के विषय में (द्विधा मन्मथविभ्रम:) दो प्रकार के कामदेव होने का भ्रम (अभवत्) हुआ।

व्याख्या

महाकवि श्रीहर्ष कहते है कि वह राजा नल इतने शोभा व कान्ति से युक्त थे कि उनको प्राप्त करने की कामना सभी लोकों की स्त्रियां करती है,इसको वह इस प्रकार कहते है –

उस पृथिवी के रक्षक ,पालक की मन्मथश्री अर्थात् साक्षात्कामदेव सदृश कान्ति को देखने व सुनने के कारण अपने मन को उसी राजा नल के प्राप्ति की इच्छा में लगा देने वाली त्रिलोक की सुन्दरियां,जो टेढ़ी भूविलास से युक्त है उन राजा नल के विषय में इस भ्रमस्थिति में रहती है कि यह पृथिवीनिवासी राजा है अथवा साक्षात् कामदेव। क्योंकि जितने सौंदर्यगुणों से युक्त कामदेव होते है उसके सदृश ही राजा नल भी है।(अत: उन सुन्दरियों को कामदेव होने का भ्रम उत्पन्न होता है।

विशेष

१.छन्द  वंशस्थ [ जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ ]
२.श्लेष अलंकार
“मन्मथ'”पद पर आचार्य नारायण अपनी टीका में कहते है-मननं मत् शास्त्राद्यभ्यासजन्यं ज्ञानं मथ्नाति इति मन्मथ:” अर्थात् मनन पूर्वक शास्त्राभ्यास से उत्पन्न ज्ञान को जो मथता है जिस पर मन्थन करता है वह मन्थन(विद्वान)कहलाता है।इस कारण मन्मथ पद में अर्थों की श्लिष्टता होने से वहां श्लेषालंकार है।
३. नतभ्रुवां – नते भ्रुवौं यास्यां ता: नतभ्रुव: तासोनतभ्रुवां.(बहुवचन)
४.मन्मथविभ्रम: – मन्मथस्य विभ्रम:(षष्ठी तत्पुरुष:)।।
५.अभवत् – भू + लङ लकार (प्र.पु.एक.व)॥

तटान्तविश्रान्ततुरंगमच्छाटा-
स्फुटानुबिम्बोदयचुम्बनेन यः।
बभौ चलद्वीचिकशान्तशातनैः
सहस्त्रमुच्चैःश्रवसामिवाश्रयन्।।

अन्वय

तटान्तविश्रान्ततुरंगमच्छाटास्फुटानुबिम्बोदयचुम्बनेन चलत् वीचिकशान्तशातनैः सहस्त्रम् उच्चैः श्रवसाम् आश्रयन् इव यः(तडाग:)बभौ।

सन्दर्भ

प्रस्तुत पद्य नैषधीयचरितम् के प्रथम सर्ग से उद्धृत है जिसके रचयिता महाकवि श्रीहर्ष है। जिन्होने शास्त्रार्थ में उदयनाचार्य को परास्त किया तथा खण्डनखण्डखाद्य नामक ग्रन्थ की रचना भी की।

प्रसंग

इस पद्य में राजा नल तथा उनकी सेना में जो बहुत सुन्दर घोड़े है उनकी सुन्दरता का वर्णन तथा उस तालाब की भी वर्णन किया जा रहा है, जहाँ वे विश्राम कर रहे है।

अर्थ

[तटान्तविश्रान्ततुरंगमच्छाटास्फुटानुबिम्बोदयचुम्बनेन] तालाब के किनारे भाग में विश्राम करने वाले अश्वों की श्रेणियां व समूह उनके प्रतिबिम्ब (परछाई) को स्पर्श (चुम्बन) करने के ब्याज (बहाने) से [चलद्वीचिकशान्तशातनैः] चञ्चलता से युक्त लहरों (वीचि) को चाबुक की तरह उपयोग करते एवं उसके द्वारा नियन्त्रित करने वाले ,उसकी छोर से ताड़ना करने वाले (सहस्त्रम्) बहुत से अथवा हजारों [उच्चैः श्रवसाम्) उच्चैःश्रवा नामक घोड़े के (आश्रयन् इव) आश्रयभूत होते हुए मानो (यः) तालाब (बभौ) सुशोभित हो रहा है।

व्याख्या

महाकवि श्रीहर्ष के प्रकृतिवर्णन का यह पद्य सबसे श्रेष्ठ उदाहरण माना जा सकता है। जब राजा नल दमयन्ती की विरह व्यथा में सन्तप्त होकर वन में प्रवेश करते है तथा विश्राम के लिए घोडों को सरोवर के तीर पर छोड़ देते है तभी उन घोडों का प्रतिबिम्ब सरोवर पर पड़ रहा होता है। उन अश्वों की तुलना उच्चैःश्रवा नामक अश्वों से की। पौराणिक मान्यता के अनुसार उच्चैःश्रवा घोड़ा समुद्र मंथन से उत्पन्न होने वाले 14 रत्नों मे से एक था। यहां सरोवर में परछाई पड़ने पर जल के लहरों की उत्प्रेक्षा के द्वारा उसको चाबुक प्रहार करने का वर्णन भी किया गया एवं अश्वों में उच्चैःश्रवा नामक अश्वों का आरोपण भी किया गया है ।

विशेष

1.छन्द-वंशस्थ[जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ]
2.बभौ-भा दीप्तौ +लिट् (प्रथम पु. एक.)
3.वीचिकशान्तशातनैः-वीचय एव कशा:(रुपक),
वीचिकशानाम् अन्ताः (षष्ठी तत्पुरुष)
तैःशातनानि तैः(तृतीय तत्पुरुष)
4.अलङकार-रुपक /उत्प्रेक्षा
5.यः-यद् पुल्लिंग प्रथमा विभक्ति एकवचन

न वासयोग्या वसुधेयमीदृशः
त्वमङ्ग! यस्याः पतिरुज्झितस्थिति:।
इति प्रहाय क्षितिमाश्रिता नभः
खगास्तमाचुक्रुशुरारवै: खलु।।

अन्वय

अङ्ग! यस्या: उज्क्षितस्थिति: ईदृशः त्वं पतिः इयं वसुधा न वासयोग्या इति क्षितिं प्रहाय नभः आश्रिता: खगा: आरवैः तं खलु आचुक्रुशु:।

सन्दर्भ

प्रस्तुत पद्य नैषधीयचरित के प्रथम सर्ग से उद्धृत है जिसके रचयिता महाकवि श्रीहर्ष है। जिन्होने शास्त्रार्थ में उदयनाचार्य को परास्त किया तथा खण्डनखण्डखाद्य नामक ग्रन्थ की रचना भी की।

अर्थ

(अङ्ग) सम्बोधकवाचक हे राजन् (यस्या:) जिसके (उज्झितस्थितिः) मर्यादा का त्याग हो गया हो (ईदृशः) इस प्रकार के (त्वं) तुम (पति:) राजा हो,पालक हो अतः (इयं) यह (वसुधा) पृथिवी (न, वासयोग्या) बसने योग्य नहीं है (इति ,क्षितिं, प्रहाय) ऐसा कहकर भूमि को त्यागकर (नभः) आकाश को (आश्रिता:) प्राप्त होने वाले (खगाः) पक्षियों के (आरवै:) शब्दों के द्वारा (तं) उन नल की (खलु) उत्प्रेक्षा व निश्चयपूर्वक (आचुक्रुशुः) निन्दा की गयी।

व्याख्या

महाकवि श्रीहर्ष उस सरोवर का वर्णन कर रहे है जिसमें राजा नल ने बहुत सावधानी से शनैः शनैः जाकर क्लान्त हंस के ग्रीवा को पकड़ लिया इस सम्पूर्ण घटनाक्रम को देखकर सरोवरस्थ हंस व अन्य पक्षियों ने उस सरोवर का त्याग कर दिया इसका मार्मिक व साहित्यिक वर्णन करते हुए कहते है-अरे राजन! इस पृथिवी का तुम्हारे सदृश शासक, जो राजा की उत्कृष्ट मर्यादा प्रजापालन ,प्रजारक्षण को त्यागकर इस प्रकार निरपराध हंस की ग्रीवा उसकी सुन्दरता के कारण पकड़ लेता है तथा उसे कष्ट पहुंचा रहा है । इस कारण यह धरती रहने योग्य नहीं रही हम सभी आकाश में ही अपना आश्रय स्थापित करेगें ऐसा शब्द करने लगे।
चूकिं प्रथम सर्ग के प्रारम्भ में ही राजा के विविध गुणों का वर्णन किया जो उनकी प्रजाप्रेम को सुस्पष्ट करता है —

विभज्य मेरुर्न यदर्थिसात्कृतो
न सिन्धुरूत्सर्गजलव्ययैर्मरूः।
अमानतत्तेन निजायशोयुगं
द्विफालबद्धाश्चिकुराः शिरः स्थितम्।।
(नैषध.१/१६)

इस श्लोक के द्वारा राजा नल के दानादि की प्रतिष्ठा की जा रही है ,वही इन पक्षियों के द्वारा इस श्लोक में निन्दा करना विरोधाभास दर्शाता है। परन्तु राजा नल के इन दैवीय गुणों का ह्रास उनके कामजनित विकार के कारण ही हुआ क्योंकि वह दमयन्ती की अभिलाषा में सन्तप्त थे और इसी के मध्य में सुन्दर हंस दिख पडा, जो कुछ उनके सन्ताप का हरण करने वाला था। वस्तुतः यहीं हंस उनके अभिलषित कर्म को पूर्ण करने वाला सिद्ध होगा। आगे चलकर यही हंस नल का संदेश दमयन्ती तक पहुंचाता है।

विशेष

1. छन्द – वंशस्थ(जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ)
2. अलङ्कार – उत्प्रेक्षा[भवेत्संभावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना]
3. उज्क्षितस्थिति: – उत्झितं स्थितिः यस्य सः (बहुव्रीहि समास)
4. खलु-उत्प्रेक्षायां निश्चयार्थे वा।
5. आचुक्रुशु: – क्रुश आह्वाने रोदने च (भ्वादि)+लिट् लकार(प्र.पु.एक.वचन)।

आशा है कि आपको नैषधीयचरितम् Naishdhhiyacharitam उपयोगी और जानकारीपूर्ण लगा होगा। ऐसी ही उपयोगी जानकारी और मार्गदर्शन के लिए जुड़े रहें boks.in के साथ। आपका सहयोग और विश्वास ही हमारी प्रेरणा है।

FAQS

1) नैषधीयचरितम् परिगणित है।
उत्तर- बृहत्त्रयी में

2) श्रीहर्ष की माता का नाम क्या है?
उत्तर- मामल्लदेवी

3) उदिते        काव्ये क्व माघः क्व च भारविः।
उत्तर- नैषधे
अर्थात् नैषधमहाकाव्य के लिखने के पश्चात् माघ का शिशुपालवधम् तथा भारवि का किरातार्जुनीयम् का महत्व कुछ कम सा हो गया।

4) श्रीहर्ष को किन राजवंश का आश्रय प्राप्त था?
उत्तर- कन्नौज के राजवंश का
मुख्यतः विजयचन्द्र व जयचन्द्र का

5) श्रीहर्ष का काल निर्धारित किया जाता है।
उत्तर- 12वीं शताब्दी का उत्तरार्ध

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