निरुक्त गद्यांश व्याख्या ; Nirukt

प्रिय विद्यार्थियों, इस पोस्ट में निरुक्त गद्यांश व्याख्या ; Nirukt की टिप्पणी व्याख्या हिंदी में है। यह देहली विश्वविद्यालय परास्नातक DU, M.A Sanskrit का previous year प्रश्न पत्र का उत्तर है।

5. निम्नलिखित की सन्दर्भ सहित व्याख्या कीजिए-

जातवेदाः कस्मात्? जातानि वेद। जातानि वैनं विदुः। जाते जाते विद्यत इति वा। जातवित्तो वा जातधनः। जातविद्यो वा जातप्रज्ञानं। ‘यत्तज्जातपशूनविन्दत इति तज्जातवेदसो जातवेदस्त्वम् ’ इति च ब्राह्मणम्।……….स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरिताऽत्यग्निः ।

सन्दर्भ

प्रस्तुत गद्यांश निरुक्त के दैवत काण्ड के सप्तम अध्याय से उद्धृत है जिसके रचयिता महर्षि यास्क हैं।

प्रसङ्ग

प्रस्तुत गद्यांश में “जातवेदाः” पद का निर्वचन , उसके सन्दर्भ में ब्राह्मणग्रन्थों के वचन तथा उदाहरण स्वरूप मन्त्र को उद्धृत किया गया है।

व्याख्या

आचार्य यास्क अग्नि के वर्णन के अन्तर्गत उसके एक अपर नाम पद का निर्वचन प्रस्तुत करते हुए कहते है –

जातवेदाः कस्मात्?

अर्थात् जातवेदाः किस कारण से होता है?

जातानि वेद। जातानि वैनं विदुः। जाते जाते विद्यत इति वा। जातवित्तो वा जातधनः। जातविद्यो वा जातप्रज्ञानः।

जातवेदस् प्रातिपदिक की व्युत्पत्ति जातपूर्वक विद् ज्ञाने धातु से कर्त्ता अर्थ में असि प्रत्यय ( उणादि. ‌४.२२७ ) करके बनता है।
अतः क्रमशः आचार्य यास्क द्वारा निर्वचन के विविध अर्थ को प्रस्तुत करते है –

1. जातानि वेद – वह ‘जातवेदस्’ नामक अग्नि उत्पन्न हुए पदार्थों को जानता है। अग्निसूक्त (१.१) में अग्नि का विशेषण “पुरोहित”  स्वीकार किया गया जो सर्वप्रथम अग्नि की उत्पत्ति का सूचक है। अतः सर्वप्रथम जो पदार्थ उत्पन्न होता है वह ही ऐसा सामर्थ्य रखता है कि अन्य अपर उत्पन्न पदार्थों को जान सके।

2. जातानि वैनं विदुः – उत्पन्न सभी पदार्थ इस ‘जातवेदस्’ अग्नि को जानते है क्योंकि सभी उत्पन्न पदार्थ ऊष्मा, विद्युदादि का अनुभव तो करते ही है। अतः जानने का तात्पर्य होगा उनका सामान्यतः ज्ञान रखना। वस्तुतः इस ‘जातवेदस्’ अग्नि के विषय में मनुष्यश्रेणी में भी योगिजन ही जान सकते है।

3. जाते जाते विद्यत इति वा – वह जातवेदस् अग्नि उत्पन्न हुए सभी पदार्थों मे विद्यमान रहता है। अतः यह सर्वविदित है कि अग्नि का अर्थ ऊष्मा, उष्णता व तेज है जो प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ में अनिवार्यता से होता है क्योंकि कोई भी उत्पन्न पदार्थ विना संयोग-वियोग के उत्पन्न नहीं होता । सभी संयोग-वियोग की प्रकिया में ऊर्जा होना यह सैद्धांतिक नियम है।

4. जातवित्तो वा जातधनः – अग्नि , धन का उत्पादक अर्थात् धन का प्रदान करने वाला होता है।

धनं कस्मात्? धिनोतीति सतः।

जो पदार्थ तृप्तिकारक हो वह धन कहलाता है। अतः तृप्तिकारक पदार्थ का उत्पादक अग्नि होता है।

5. जातविद्यो वा जातप्रज्ञानः – प्रकृष्ट ज्ञान का उत्पादक अग्नि होता है। इसका आशय है कि विभिन्न पदार्थ अग्नि के द्वारा जाने जाते है क्योंकि किसी स्थूल सूक्ष्म की प्रतीति का कारण उसका रूप होता है। अतः अग्नि का प्रधान गुण रूप ही होता है। अग्नि सभी ज्ञात पदार्थों के ज्ञान का कारण होता है। आचार्य यास्क अग्रिम पङ्क्ति में ब्राह्मणग्रन्थ का वचन प्रस्तुत करते हुए कहते है –

‘यत्तज्जातपशूनविन्दत इति तज्जातवेदसो जातवेदस्त्वम्’ [ मैत्रायणी संहिता 1.8.2]

जातवेदस् का जातवेदस्त्व क्या है इसका वर्णन करते हुए महर्षि कहते है कि जो उत्पन्न होते ही पशूओं को प्राप्त होता है वह जातवेदस् कहलाता है ।
इसी प्रकार का वचन इस मैत्रायणी संहिता 1.8.2 के गद्यांश में प्राप्त होता है –

‘अग्निं वै पशवः प्रविशन्ति अग्निः पशून्’ [ मैत्रायणी संहिता 1.8.2]

अग्नि को पशुएँ तथा अग्नि पशुओं को प्राप्त होता है अर्थात् दोनों एक – दूसरे में प्रविष्ट होते है।

परन्तु पशु का अर्थ क्या है? कहा –

प्राणाः पशवः [ श.ब्रा.7.5.2.6 ]

यदि शतपथब्राह्मणकार महर्षि याज्ञवल्क्य का भाव हम साधारणतः प्राणवायु माने तो अर्थ होगा कि प्राणवायु में अग्नि तथा अग्नि में प्राणवायु पूर्णतः सम्मिश्रित होते है। इसका अन्यत्र उदाहरण देखे तो प्राणादि भेद, अग्नि के कारण भी हो सकते है यह विचारणीय विषय है।

अतः इसका उदाहरण प्रस्तुत करते है –
जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेदः।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरिताऽत्यग्निः॥

आचार्य सायण ने इसका वर्णन यज्ञीय पद्धति के अनुसार किया है जो इस प्रकार है-

उस (जातवेदसे) जातवेदस् अग्नि के लिए अथवा उसकी अर्चना करने के लिए (सोमम्) सोम नामक लता को (सुनवाम) हम सभी निचोड़ते है। (सः अग्निः) वह अग्नि (अरातीयतः) शत्रुओं के (वेदः) धन को (नि दहाति) नष्ट करता है। (नः) हमारे (विश्वा दुर्गाणि दुरिता) सभी दुर्गुण व दुःखों को (अति पर्षद्) दूर करते है। (नावेव सिन्धुम्) जिस प्रकार सम्पूर्ण जलराशि को पार करने के लिए नौका होती है उसी प्रकार अग्नि हमें दुःखों से पार लगावें।

यहाँ इस मन्त्र के भाष्य में महर्षि दयानन्द सरस्वती जातवेदस् का अर्थ परमेश्वर  स्वीकार करते है जो निम्न अर्थों वाला है –

जिस (जातवेदसे) उत्पन्न हुए चराचर जगत् को जानने और प्राप्त होने वाला वा उत्पन्न हुए सर्व पदार्थों में विद्यमान जगदीश्वर के लिए हम लोग (सोमम्) समस्त ऐश्वर्ययुक्त सांसारिक पदार्थों का (सुनवाम) हम निचोड़ करते है अर्थात् यथायोग्य सब को वर्तते हैं और जो (अरातीयतः) अधर्मियों के समान वर्ताव रखने वाले दुष्ट जन के (वेदः) धन को (नि दहाति) निरन्तर नष्ट करता है। (सः) वह (अग्निः) विज्ञानस्वरूप जगदीश्वर जैसे मल्लाह (नावेव) नौका से (सिन्धुम्) नदी वा समुद्र के पार पहुँचता है उसी प्रकार अग्नि हमें दुःखों से पार लगावें।

(नः) हम लोगों को (अति) अत्यन्त (दुर्गाणि) दुर्गति और (अति दुरिता) अतीव दुःख देने वाले (विश्वा) समस्त पापाचरणों के (पर्षद्) पार करता है, वही इस जगत् में खोजने योग्य हैं।

इस प्रकार का वर्णन आचार्य यास्क जातवेदस् पद के निर्वचन के द्वारा कर रहे हैं।

अथवा

तद्येऽनादिष्टदेवता मन्त्रास्तेषु देवतोपपरीक्षा। यद्दैवतः स यज्ञो वा यज्ञाङ्ग वा तद्देवता भवन्ति ।अथान्यत्र यज्ञात्प्राजापत्या इति याज्ञिकाः। नाराशंसा इति नैरुक्ताः। अपि वा सा कामदेवता स्यात्। प्रायोदेवता वा। अस्ति ह्याचारो बहुलं लोके। देवदैवत्यमतिथिदैवत्यं पितृदैवत्यम्। याज्ञदैवतो मन्त्र इति।

सन्दर्भ

प्रस्तुत गद्यांश निरुक्त के प्रथम अध्याय से उद्‌धृत है। यह निरुक्त शास्त्र निघण्टु की व्याख्या है जो आचार्य यास्क द्वारा प्रणीत है।

प्रसङ्ग

इस गद्यांश में आचार्य यास्क उन मन्त्रों की चर्चा कर रहे है जिसमें देवता की परीक्षा करना कठिन होता है जिसे अनादिष्ट देवता कहा गया ।

व्याख्या

आचार्य यास्क कहते है कि पूर्व में त्रिविध ऋचा का वर्णन किया गया है तदनन्तर कुछ मन्त्र ऐसे होते हैं जिनमें देवताओं की प्रतीति कठिनता से होती है ऐसे देवताओं के विषय में अर्थात् अनादिष्ट [ अनिर्दिष्ट – जो निर्देशित न की जाए ] देवताओं के विषय के ज्ञान के लिए इस प्रकरण का प्रारम्भ करते हैं।

सर्वप्रथम एक सामान्य नियम प्रस्तुत करते हुए कहते है कि –

यद्दैवतः स यज्ञो वा यज्ञाङ्ग वा तद्देवता भवन्ति ।

इस वाक्य का आशय है कि जो मन्त्र किसी यज्ञ विशेष में प्रयुक्त हो रहे हो तो जिस देवता का वह यज्ञ हो वह मन्त्र भी उसी देवता का मानना चाहिए तथा उनके यज्ञाङ्ग अर्थात यज्ञ की विधि में सहयोग करने वाले अन्न, धन, गौ आदि भी देवता हो सकते है। जिसकी अभीष्टता याजक-यजमान को हो वह ही उस मन्त्र का देवता होगा।

परन्तु कुछ मन्त्र ऐसे भी हो सकते हैं जो यज्ञों में प्रयुक्त नहीं होते, उनकी देवतोपपरीक्षा किस प्रकार हो ? इस शंका के उपस्थित होने पर आचार्य विविध प्रकार से वर्णन करते है

1) याज्ञिक- अथान्यत्र यज्ञात्प्राजापत्या इति याज्ञिकाः ।

(अथ) और ( यज्ञात् अन्यत्र) यज्ञ में प्रयुक्त मन्त्र से भिन्न मन्त्र जो अनादिष्ट देवता वाले हो वे सभी मन्त्र (प्राजापत्याः) प्रजापति देवता के मानने चाहिए (इति याज्ञिकाः) ऐसा याज्ञिकों का मत है।

2) नैरुक्त- नाराशंसा इति नैरुक्ताः ।
यज्ञ में प्रयुक्त मन्त्र से भिन्न मन्त्र जो अनादिष्ट देवता वाले हो वे सभी मन्त्र ( नाराशंसा) नाराशंसी देवता वाले होते है।

नाराशंसी देवता के २ अर्थ होते है – अग्नि तथा यज्ञ

क) ‘अग्निर्वै सर्वा देवता’ यह ब्राह्मण ग्रन्थ का वचन सिद्ध करता है कि सभी देवता अग्नियुक्त होते है अथवा अग्नि सभी देवता में व्याप्त लेता तथा उनमें प्रथम व प्रधान होता है।

ख) ‘यज्ञो वै विष्णु:’ यज्ञ से विष्णु भी ग्रहण किया जा सकता है विश्व में सर्वत्र व्याप्त होता है वह विष्णु भी अनादिष्ट मन्त्रों में अनादिष्ट देवता हो सकता है।

इस प्रकार का मत नैरुक्तों का होता

२) अन्य मत – अपि वा सा कामदेवता स्यात् ।

जो कामना जिस देवता के प्रति रखकर की जाए तथा उस कामना में अनादिष्ट देवता मन्त्र का प्रयोग हो तो उस मन्त्र का देवता उसे ही मानना चाहिए जिसके स्मरण में वह मन्त्र बोला गया हो ।

उदाहरणतः –

ऋग्वेद के मन्त्रों में प्रायः विश्वेदेवा नामक देवता का अर्थ सभी देवता माना है जिससे मन्त्रार्थकर्ता उस मन्त्र के अनुरूप उसको देवता का निर्धारण करता है।

यथा-

अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः। तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम्।। (ऋ.1.164.1)

इस मन्त्र के व्याख्या में आचार्य यास्क ‘सप्तपुत्रम्’ पद का निर्वचन करते हुए कहते है

सप्त सृप्ता संख्या । सप्तादित्यश्मय इति वदन्ति
– निरुक्त ४.१२६

चूंकि यह मन्त्र विश्वेदेवा देवता का होने से उनका ही मन्त्र ज मानना चाहिए परन्तु मन्त्र की रूपरेखा से ज्ञात होता है कि इसमें आदित्य तथा आदित्य की रश्मियों की चर्चा की जा रही है। अतः विश्वेदेवा का अर्थ आदित्य वा आदित्य-रश्मि मानना चाहिए।

इसी प्रकार अन्य उदाहरण है

अरुणो मासकृद् वृकः पथा यन्तं ददर्श हि।
उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयो वित्तं मे अस्य रोदसी।। (ऋ.1.105.18) 

उस मन्त्र में ‘वृकः’ पद की प्रधानता है यतोहि यहाँ भी देवता विश्वेदेवता ही है। निरुक्त (५.२१) के इस प्रकरण में ही वृक: का निर्वचन करते हुए।
कहा-

वृकः चन्द्रमा भवति ।

अर्थात् उन सभी पंक्तियों से यह स्पष्ट होता है कि विश्वेदेवा का अर्थ इस मन्त्र में चन्द्रमा है।

प्रायो देवता वा ।

इसका अर्थ है कि जिस देवता के अधिकार वाला वह मन्त्र होता है वहीं उस मन्त्र का देवता होता है। अर्थात किसी मन्त्र में देवता प्रकट न हो परन्तु मन्त्र वर्णन से उसका देवता सिद्ध हो तो उसे सामान्यता उस मन्त्रार्थ के अधिकार वाला देवता कह सकते है।

उदाहरणतः

इमे सुता इन्दवः प्रातरित्वना सजोषसा पिबतमश्विना तान्।
अयं हि वामूतये वन्दनाय मां वायसो दोषा दयमानो अबूबुधत्।। (निरु ४.१७)

यह निरुक्त में मन्त्र प्राप्त होता है जिसमें देवता का बोध नहीं हो पाता। अतः आचार्यों के अनुसार इस मन्त्र के वर्णन में ‘इन्द्र’ को देवता माना जाता है।

अस्ति ह्याचारो ह्याचारो बहुलं लोके। देवदैवत्यमतिथिदैवत्यं पितृदैवत्यम्। याज्ञदैवतो मन्त्र इति।

प्रायः लोक में व्यवहार है कि देवदेवता से संबंधित है अतिथि देवता से संबंधित है पितृदेवता से संबंधित है।
अर्थात लोक व्यवहार में सबको देवता रूप माना जाता है। उसका ही वर्णन है। वह मन्त्र यज्ञ=कर्मकाण्ड में जो देवता होता है, वहीं अनादिष्ट देवताक मन्त्रों का देवता होता है।

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