निरुक्त गद्यांश व्याख्या ; Niruktam

प्रिय विद्यार्थियों, इस पोस्ट में निरुक्त गद्यांश व्याख्या ; Niruktam की टिप्पणी व्याख्या हिंदी में है। यह देहली विश्वविद्यालय परास्नातक DU, M.A Sanskrit का previous year प्रश्न पत्र का उत्तर है।

५) निम्नलिखित की सन्दर्भ सहित व्याख्या कीजिए

क) तत्र चतुष्टयं नोपपद्यते। अयुगपदुत्पन्नानां वा शब्दानामितरेतरोपदेशः। शास्त्रकृतो योगश्च। व्याप्तिमत्वात्तु शब्दस्य। अणीयत्वाच्च शब्देन संज्ञाकरणं व्यवहारार्थं लोके।

सन्दर्भ

प्रस्तुत गद्यांश निरुक्त के प्रथम अध्याय से उद्‌धृत है। यह निरुक्त शास्त्र निघण्टु की व्याख्या है जो आचार्य यास्क द्वारा प्रणीत है।

प्रसङ्ग

प्रस्तुत गद्यांश में शब्द के चार प्रकार नामाख्यातोपसर्गनिपात होने पर अथवा न होने पर विचार किया जा रहा है।

व्याख्या

आचार्य यास्क इस शब्द‌नित्यत्वानित्यत्व विमर्श में आचार्य औदुम्बरायण का मत प्रस्तुत करते है–

इन्द्रियनित्यं वचनमौदुम्बरायणः ।

अर्थात् जो पद वा शब्द कहे जाते है वह केवल इन्द्रिय तक ही नित्य होते है क्योंकि हम मुख से जिस जिस वर्ण का उच्चारण करते रहते हैं वह एक के पश्चात् दूसरा होता है तथा दूसरे वर्ण के उच्चारण तक पहले वर्ण की सत्ता समाप्त हो जाती है।

उदाहरणतः किसी ने ‘राम’ ऐसा शब्द कहा तो उसके मुख से र्+आ+म्+अ यह ध्वनि निकलती है। ‘र्’ के पश्चात् ‘आ’ कहने तक ‘र्’ का अस्तित्व समाप्त हो गया, ‘म्’ कहने तक र्+आ का तथा ‘अ’ कहने तक र्+आ+म् का अस्तित्व समाप्त हो गया जो शब्द के अनित्यत्व को सुदृढ़ करता है जिसे आचार्य औदुम्बरायण प्रस्तुत करते है और इसी प्रकार का निष्कर्ष निकलता है कि पूर्ववर्णित आचार्य यास्क का पदचतुष्टय विभाग ‘ नामाख्यातोपसर्गनिपात’ भी अनित्य है क्योंकि उपसर्ग- धातु-प्रत्यय में भी उपसर्ग के वर्ण कहने के उपरान्त धातु व प्रत्यय जिससे पश्चात् के कथन करते रहने पर पूर्व वाले वर्णों का शनै:-शनैः नाश होता रहता है जो इस शब्दशास्त्र के संयोजन पर सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। परन्तु आचार्य यास्क इसका समाधान करते है–

‘व्याप्तिमत्त्वात् तु शब्दस्य’

शब्द के व्याप्तिमान होने से अर्थात् शब्द इस ब्रह्माण्ड में एक रस सब ओर भरे हुए हैं जो हम सभी को व्याप्त किये हुए है।

हम सभी यह जानते हैं वर्णों का अपर नाम ‘अक्षर’ भी होता है ‘न’ क्षरतीति अक्षरं’ जो कभी क्षरण व नष्ट न हो वह अक्षर है। यदि इन्द्रिय (मुख) से कहने पर पूर्व -पूर्व वर्ण का नष्ट होना यदि प्रतीत हो रहा है तो वस्तुतः वह नष्ट नहीं हो रहा अपितु श्रोता के मन में व्याप्त वर्णों के साथ संयुक्त हो अर्थावबोध में सहयोग कर रहा है जो एक गम्भीर विज्ञान का विषय है। अतः शब्द के उच्चारण व श्रवण की प्रक्रिया अनित्य है किन्तु शब्द नित्य है।

आगे महर्षि यास्क कहते है–

अणीयस्त्वाच्च शब्देन सञ्ज्ञाकरणं व्यवहारार्थं लोके
शब्द अत्यधिक अणु वा / जूक्ष्म होते है जो वर्तमान विज्ञान की किसी भी तकनीकी से अलभ्य होते है। इस वाक्य के पुष्टि में हम वाणी के आर्ष मत को उद्‌धृत करते हैं-

चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः ।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ॥ (ऋग्वेद १.१६४.४५)

इस मन्त्र के भाष्य में आचार्य सायण कहते हैं–
“परापश्यन्ती मध्यमा वैखरीति चत्वारीति। एकैव नादात्मिका वाग्मूलाधारादुदिता सती परेत्युच्यते। नादस्य च सूक्ष्मत्वेन दुर्निरूपत्वात् सैव हृदयगामिनी पश्यन्तीत्युच्यते योगिभिर्द्रष्टुं शक्यत्वात् । सैव बुद्धिं गता विवक्षां प्राप्ता मध्यमेत्युच्यते मध्ये हृदयाख्य उदीयमानत्वान्मध्यमायाः । अथ यदा सैव वक्त्रे स्थिता ताल्वोष्ठादिव्यापारेण बहिर्निर्गच्छति तदा वैखरीत्युच्यते ॥” (ऋग्वेद भाष्य १.१६४.४५)

अर्थात वाणी के चार प्रकार परा पश्यन्ती मध्यमा वैखरी

क)  परा – आत्मिका वाक् अर्थात आत्म के स्तर की वाणी।

ख) पश्यन्ती – हृदयगामिनी अर्थात मनस्तत्व में अभिव्याप्य जो योगियों के लिए गम्य है ।

ग) मध्यमा – बुद्धिगता अर्थात् मस्तिष्क में अभिव्याप्य वाणी जो कुछ कुछ वर्तमान तकनीकी से लभ्य होती है।

घ) वैखरी – वक्त्रे स्थिता अर्थात मुख में स्थित रहते वाली ताल्वादिव्यापार के द्वारा प्राप्त होने वाली ।

वस्तुतः उपरोक्त मूल्याङ्कन से यह ज्ञात होता है कि आचार्य औदुम्बरायण जिस अनित्य वचन की बात कह रहे थे वह वैखरी वाणी है, जो वस्तुत: अनित्य ही होती है। अतः यह अपने क्षेत्र में सत्य प्रतीत होते है।

परन्तु आचार्य यास्क परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी चारों को संङ्केतित करते हुए यह कहते है कि इस सबसे सूक्ष्म ‘परा वाणी’ सर्वाधिक व्याप्त व अनश्वर है जिस प्रकार आात्मा – परमात्मा ।

इसी ‘अणीयस्त्वात्’ सूक्ष्म, व्याप्त होने से ‘शब्देन सञ्ज्ञाकरण’ के द्वारा किसी की संज्ञाकरण में तथा व्यवहारार्थं लोके दैनिक व्यवहार में अनित्य प्रतीत होने पर भी शब्द सदैव नित्य होते हैं।

ऐसा आचार्य यास्त्र का मत है जो प्राचीन शब्दनित्यत्व विचार को सुदृढ़ता से प्रस्तुत करता है ।

अथवा

क) अथापिदमन्तरेण मन्त्रेष्वर्थप्रत्ययो न विद्यते अर्थमप्रतीयतो नात्यन्तं स्वरसंस्कारोद्देशस्तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कार्त्स्न्यं स्वार्थसाधकञ्च। यदि मन्त्रार्थप्रत्ययायानर्थकं भवतीति कौत्सोऽनर्थका हि मन्त्राः।

सन्दर्भ

प्रस्तुत गद्यांश निरुक्त के प्रथम अध्याय से उद्‌धृत है। यह निरुक्त शास्त्र निघण्टु की व्याख्या है जो आचार्य यास्क द्वारा प्रणीत है।

प्रसङ्ग

प्रस्तुत गद्यांश में निरुक्त के प्रयोजन व उसमें लगाए गए आचार्य कौत्स के आक्षेपों वर्णन है।

व्याख्या

आचार्य यास्क कहते हैं कि इस निरुक्त शास्त्र के बिना मन्त्रों के अर्थों का बोध असम्भव है।

अथापि इदम् अन्तरेण मन्त्रेषु अर्थप्रत्ययो न विद्यते

क्योंकि वेद के मन्त्रों में ऐसे क्लिष्ट पदों का समावेश है जो पाठकों के लिए अगम्य हो जाते है तथा बहुत से पदों का अर्थ वह रूढ़ कर बैठता है। उदाहरणतः– ‘गौ’ पद वेदमन्त्रों में भी आता है, जो लोक में ‘गौ’ पद सास्नादिमान प्राणी के लिए प्रयुक्त होता है। उसी प्रकार ही वेद में ग्रहण करना एक अनिष्ट अर्थ का सूचक बन जाता है, जो वेदमन्त्रों के मूर्खत्व का परिचायक बनती है वस्तुतः वेदमन्त्र गलत नहीं अपितु उसके अर्थकर्त्ता की भ्रान्ति होती है जो उसकी श्रेष्ठता – अश्रेष्ठता का हेतु बनती है। इसी गौ पद के आचार्य ने अर्थ किए है जिसे संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है –

अथापि अस्यां ताद्धितेन कृत्स्नवन्निगमा भवन्ति ।
गोभिः श्रीणीत मत्सरम् । [ऋ. ९.४६.४] इति पयसः ।

यह ऋग्वेद के नवम् मण्डल के ४६ वे सूक्त के ४ वे मन्त्र का मन्त्रांश है जिसका लोक सामान्य अर्थ करने पर–

गाय नामक प्राणी के द्वारा मत्सर (सोम )को प्राप्त करता है।

जो सम्यक् रूपेण अर्थ का परिचायक नहीं कर रहा है तभी आचार्य यास्क ने इस मन्त्र के व्याख्यान में कहा कि गो पद में तद्धित का प्रयोग करने पर अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति वेदमन्त्रार्थकर्ता को प्राप्त होती है।

तब अर्थ होगा- ‘गाय का दूध ‘ उसके द्वारा सोम [ विशेष औषधि ] प्राप्त किया जाता है जो संगत व बुद्धिगम्य अर्थ को देने वाला हो सकता है।

अतः वेदमन्त्रार्थ के बोध में निरुक्त शास्त्र सबसे उपयोगी है।

अर्थप्रतीयतो नात्यन्तं स्वरसंस्करोद्देशः

अर्थात अर्थ के ज्ञान के विना व्याकरण के धातु प्रत्यय का ज्ञान, उदात्तादि स्वरों का ज्ञान असंभव है। उपरोक्त उदाहरण से ज्ञात होता है कि गो पद में तद्धित प्रत्यय के न दिखने पर भी तद्धित प्रत्यय का अर्थ प्रतीत होने पर उसमें तद्धित प्रत्यय माना गया यह ही अर्थ की महत्ता है जो इस शास्त्र का प्रधान प्रयोजन है।

आगे महर्षि कहते है–

तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कार्त्स्न्यं स्वार्थसाधकं च।

क) विद्यास्थानम्

याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार –

पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्राङ्ग‌मिश्रिता ।
वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ।। या. स्मृ. ३ ॥

पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, 4 वेद ,6 वेदाङ्ग, यह कुल 14 विद्यास्थान माने गए हैं।

निरुक्त वेदाङ्ग का ही भाग होने से एक विद्यास्थान कहा जाता है।

ख) व्याकरणस्य कार्त्स्न्यम्

यह निरुक्त शास्त्र व्याकरण की सम्पूर्णता का सूचक है।
इस वाक्य का अर्थ हुआ कि जो परिश्रम व्याकरण के पढ़ने-पढ़ाने में होता है उससे अधिक व विशिष्ट परिश्रम इस शास्त्र में होता है. क्योंकि व्याकरण किसी शब्द की व्युत्पत्ति मुख्यतः लौकिक प्रयोग के आधार पर करता है। इसे इस प्रकार कहना गलत न होगा कि व्याकरण , लौकिक प्रयोगों को अन्वेषण के द्वारा उनके अर्थों के अनुरूप अपनी व्युत्पत्ति करता है तथा रूढ़ अर्थों को भी वह स्वीकार तथा मान्यता प्रदान करता है।

वहीं निरुक्त शास्त्र मुख्यतः वेदों के शब्दों पर विचार करता है जिस प्रकार लौकिक व्यवहार समय, परिस्थिति आदि है अनुरूप बद‌लते रहते है वैसे ही वेद के अर्थ भी बदलते हैं ऐसी आशंका की जा सकती है । वस्तुतः ऐसा नहीं होता अपितु वैदिक पदों के बहुत से अर्थ व्युत्पत्ति लभ्य साधारण प्रक्रिया से प्राप्त हो जाते है जो अर्थ को प्रकरणानुसार पुष्ट करते हैं, परन्तु कुछ प्रकरणों में पदों का समावेश असंगत सा प्रतीत होता है वहीं निरुक्त की आवश्यकता पड़ती है।

१. प्रत्यक्षवृत्ति– जिसमें सामान्य व लोकप्रसिद्ध शब्द का तदनुसार धातु व प्रत्यय प्राप्त हो जाता है।

यथा – ‘गौ’ पद के निर्वचन में लोक प्रसिद्ध अर्थ है सास्नादिमान प्राणी, जिसके विषय में कहा-

अथापि पशुनामेह भवति एतस्मादेव।

अर्थात पशु का नाम होता है इस कारण भी ‘गौ’ कहलाता है। यह प्रत्यक्षवृत्ति कही जा सकती है।

२. परोक्षवृति – परोक्षवृत्ति मुख्यतः तो शब्दों के मूल धातु पर ही आधारित होती है परन्तु वह लोकव्यवहार में प्रयुक्त रूप में नहीं होते इस कारण जब उनका अर्थ इस वृत्ति द्वारा प्राप्त होता है तो किञ्चित् आश्चर्य की अनुभूति होती है।

यथा– ‘गौ’ यह पद मूल रूप से ‘ गम्लृ गतौ’ धातु से तथा ‘गाङ् गतौ’ धातु से उत्पन्न होता है जिसका अर्थ होता है कि जो पदार्थ गति करता है वह गौ कह लाता है। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ ‘गौ’ कहलाना चाहिए परन्तु ज्ञान, गमन, प्राप्ति, गति के तीन अर्थ लिए जाते है. जिसमें से इष्ट प्राप्ति (दुग्धादि) गौ नामक प्राणी से प्राप्त होने से गति अर्थ सिद्ध होता है।

३. अतिपरोक्षवृत्ति – प्रत्यक्ष व परोक्ष वृत्ति के अर्थ प्राप्त होने पर भी कुछ अर्थ अत्यन्त गूढ़ व रहस्यमय रूप से अवस्थित होते है जिसे तत्ववेत्ता ही जान सकते है जिसके विषय में निरुक्तकार कहते है –

पर्जन्यस्तृपेराद्यन्त विपरीतस्य तर्पयिता जन्यः परो जेता वा परो जनयिता वा प्रार्जयिता वा रसानाम् ।

जहाँ ‘पर्जन्य’ शब्द ‘तृप तृप्तौ’ धातु के आदि और अन्त के विपर्यय ‘पृत’और ‘जन्य’ के योग से सिद्ध होता है। ‘पृत’ को उपधा गुण [उरणरपरः) पर्त्+जन्य = पर्जन्यः

उस प्रकार के बने अनेक शब्द अतिपरोक्ष वृति के उदाहरण है क्योंकि जिसमें अर्थ की सबसे प्रधान अनिवार्यता रखकर व्याकरण के नियमों को अपने अनुरूप प्रयोग किया जाता है।

यह कार्य वही कर सकता है जो प्रवीण वैयाकरण होने के पश्चात् नैरुक्त हुआ हो।

ग) स्वार्थसाधकम्

यह निरुक्त उपरोक्त वर्णित अपने अर्थ प्राबल्य सिद्धांत पर अटल रूप से कार्य करता है जिसका प्रधान उद्देश्य अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति है यदि वह प्रत्यक्ष वृति से प्राप्त हो तो अच्छी बात है अन्यथा परोक्ष व अतिपरोक्ष वृति का आश्रय ही ग्रहण करना अभिप्रेत होता है।

उन्हीं कथनों पर आचार्य कौत्स कहते है-

यदि मन्त्रार्थप्रत्ययायानर्थकं भवतीति कौत्सोऽनर्थका हि मन्त्राः।

मन्त्रार्थ के प्रतिपादन के लिए यह निरुक्त’ शास्त्र की आवश्यकता होती है तो मन्त्र अनर्थक होते है।

क्योंकि लोक में जो समर्थ व्यक्ति होता है उसे अपने अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति हेतु किसी अन्य की आवश्यकता नहीं होती अपितु वह सम्पूर्ण कार्य स्वतः ही कर लेता है। जिस वेदमन्त्र को अर्थप्रतिपादनादि महत्वपूर्ण कार्य के लिए निरुक्त जैसे शास्त्र की आवश्यकता हो वह वेदमन्त्र पङ्गुवत् होने से अनर्थक ,बिना अर्थ के हैं।
अतः इस सम्पूर्ण गद्यांश में निरुक्त की महत्ता आचार्य यास्क द्वारा प्रस्तुत की गई एवं उस पर प्रश्नचिह्न आचार्य कौत्स ने लगाए है जो प्रकरणसम्मत प्रतीत होता है।

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