पुरुष धनान्नदानम् Purush Dhnanadanam

प्रिय विद्यार्थियों, इस पोस्ट में पुरुष एवं धनान्नदानम् purush dhanannadanam की टिप्पणी व्याख्या है। यह देहली विश्वविद्यालय परास्नातक DU, M.A Sanskrit का previous year प्रश्न पत्र का उत्तर है।

2. निम्नलिखित में से किसी एक पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए –

पुरुष

ऋग्वेद के दशम मण्डल के ९०वाँ सूक्त सम्पूर्ण रूप से पुरुष सूक्त नाम से जाना जाता है जिसे दार्शनिक सूक्त की सञ्ज्ञा भी प्राप्त है। सामान्यतः इसके प्रकरण को देखने पर ज्ञात होता है कि यह सृष्टि उत्पत्ति को सूक्ष्मतम रूप से व्यापक रूप तक वर्णित करती है। वह पुरूष वास्तव में है कौन, जिसकी महिमा सम्पूर्ण सूक्त में वर्णित है। आचार्य यास्क कहते हैं कि –

पुरुषः पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा।
पूरयत्यन्तरित्यन्तरपुरुषमभिप्रेत्य।। [निरू. २.३]

यहाँ ‘पुरिषादः’ अर्थात् पुरी में रहता है। अतः पुरी में रहने के कारण पुरुष कहलाता है। आत्मा वाचक पुरुष पुरी (शरीर) में रहता है और व्यक्तिवाचक पुरुष (पुरी) नगर में रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब पुरी को शरीर से इंगित करते है तब आत्मा ( जीवात्मा तथा परमात्मा ) को पुरुष कहा जाएगा क्योंकि वह शरीर के भीतर के रहता है वहीं एक नगर को पुरी कहने पर मनुष्य, पुरुष कहलाता है।

पुरुष धनान्नदानम् Purush Dhnanadanam

चित्र 1 purush dhanannadanam

य आत्मनि तिष्ठन् यस्यात्मा शरीरम्’ जो आत्मा में स्थित है और आत्मा जिसका शरीर अर्थात् निवास स्थान है, उससे पुरुष का अर्थ ईश्वर सिद्ध होता है। इसमें प्रमाण है –

आत्मा वैः पूः (श. ब्रा. ७.५.१.२१)

जब पुरी का अर्थ मन है तब मन के अन्दर स्थित जीवात्मा ही पुरुष सिद्ध होता है।

मनऽएव पुरः (श. ब्रा. १०.३.५.७)

शास्त्र के गूढ़ता के कारण सामान्यतः हम कह देते है कि शरीर के अन्दर आत्मा है परंतु महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार मन ही पुरी होती है और उसमें रहने वाला आत्मा होता है। मन के दो रूप होते है –
1) समष्टि मन – जो सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त करता है जिसका नियन्त्रण परब्रह्म के पास होता है।
2) व्यष्टि मन – जो सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है, जिसका नियन्त्रण जीवात्मा के पास होता है।

इसी कारण ही पुरुष के वाचक जीवात्मा व परमात्मा दोनों होते है।

अतः शास्त्र के विविध प्रकरण प्रसंग में पुरुष का अर्थ भिन्न हो सकता है क्योंकि वेद में अर्थ की व्यापकता सर्वविदित है। सामान्यतः ‘पुरुष’ शब्द मनुष्य में नर विशेष के लिए रूढ़ हो गया है। व्युत्पत्तिलभ्य अर्थानुसार प्रत्येक प्राणी  जीवात्मा व परमात्मा पुरुष सञ्ज्ञा को प्राप्त होता है क्योंकि ‘पुरी’ शब्द के वैशिष्ट्य से ही यहाँ अर्थ परिवर्तन होता है। जैसा उपरोक्त ज्ञात है हि ‘पुरिशयः’ का अर्थ भी सार्थक है जो प्रकरणानुसार किञ्चित् भेद से वैशिष्ट्यता रखता है।

पूरयतेर्वा

व्याप्त्यर्थक ‘पूरी आप्यायने (चुरादि.)’ धातु से निष्पन्न हुआ है क्योंकि अन्दर से सम्पूर्ण पदार्थ में व्याप्त है। इस प्रकार ‘पुरी आप्यायने (चुरादि.)’ धातु से ‘कुषन्’ प्रत्यय(उणादि. ४.७४) से पुरुष शब्द बना है। परमात्मा वाचक पुरुष सम्पूर्ण जगत में और व्यक्ति वाचक पुरुष सम्पूर्ण नगर में व्याप्त होता है ( नगर में व्याप्त होना मनुष्य के लिए संभव नहीं तथापि प्रसङ्गतः ऐसा कहा जाता है )।

ध्यातव्य है कि उपरोक्त वर्णन में पूरी शब्द हिन्दी भाषा में नगर के रूप में तथा संस्कृत में एक धातु के रूप में व्याख्यायित है।

पुरुष धनान्नदानम् Purush Dhnanadanamचित्र 2 purush dhanannadanam

पूरयति अन्तः’

ऐसा विग्रह यहाँ किया गया है जिसका अर्थ है कि वह पुरुष परमात्मा अन्तर्यामी रूप होकर सबको व्याप्त कर रहा है इसीलिए भी वह परमात्मा पुरुष कहलाता है इसी प्रकार जीवात्मा अपने चित् स्वरूप के द्वारा सम्पूर्ण शरीर को व्याप्त करता है इसीलिए वह जीवात्मा पुरुष कहलाता है।

यदि इस सम्पूर्ण वर्णन का सार निकालें तो ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में वर्णित पुरुष परमात्मा ही है क्योंकि सहस्त्रशीर्षादि विशेषण जीवात्मा के सम्भव नहीं हैं।
ध्यातव्य है कि ब्राह्मण ग्रन्थों को सामान्यतः याज्ञिक प्रयोग के लिए प्रामाणिक शास्त्र माना जाता है परन्तु उनके वचनों में कुछ विशेष व याज्ञिक अर्थों की प्रतीति होती है यथा-

इमे वै लोकाः पूरयमेव पुरुषो योऽयं (वायुः) पवते सोऽस्यां पुरि शेते तस्मात्पुरुषः। (श. ब्रा. १३.६.२.१)

इसका सामान्यार्थ ज्ञापित होता है कि यह लोक (पृथिवी लोक अथवा पार्थिव लोक वा कण) ही पुरी के सदृश है और वायु सम्पूर्ण रूप से विचरण करता व पवित्र करता हुआ स्थित होता है जो पुरुष सञ्ज्ञक होता है।

पुरी ( पृथिवी ), पुरुष ( वायुमण्डल )

यदि पृथिवी लोक की पुरी सञ्ज्ञा होती है तो इसमें वायुमण्डल ही पुरुष होगा क्योंकि पृथिवी में विभिन्न (सहस्त्र) प्रकार की वायु ओज़ोन, ऑक्सीजन आदि का आवागमन प्रायः देखा जाता है। सामान्यतः सभी प्राणियों के लिए ऑक्सीजन की महत्त्वता होती है तथा अन्य विविध प्राणी व पादपों के लिए नाइट्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड जैसी वायु की आवश्यकता होती है। सम्भवतः इसी कारण कहा गया है कि

“पुरुष एवेदं सर्वम्” (पुरुषसूक्त १०.९०.२)

पुरुष धनान्नदानम् Purush Dhnanadanamचित्र 3 purush dhanannadanam

यही वायुमण्डल, सम्पूर्ण पृथिवी लोक का पुरुष है जिस वायु के कारण हानिकारक गैसों व विकरणों की रोकथाम होती है यदि पुरुष सञ्ज्ञक वायु अथवा वायुमण्डल इस पृथिवी से नष्ट हो जाए तब पृथिवी पर जीवन ही संभव नहीं है यथा शरीर में पुरुष सञ्ज्ञक जीवात्मा का न रहना।
इस बात की पुष्टि करने के लिए हम एक अन्य प्रमाण प्रस्तुत करते हैं-

प्राण एष स पुरि शेते स पुरि शेत इति पुरिशयं सन्तं प्राणं पुरुष इत्याचक्षते (गो. ब्रा. पू. १.3९)

 

पुरी ( पार्थिव लोक ), पुरुष ( प्राण )

इसी प्रकार पार्थिव लोक, शरीर को ही पुरी मानें तो उसमें विद्यमान प्राण नामक वायु (जो सामान्यतः दश प्रकार की होती है तथा उसमें से एक प्राण नामक प्राण वायु भी होती है) पुरुष सञ्ज्ञक होगी, जिसके न रहने पर शरीर का अस्तित्व ही नहीं रहता। यह सरलता से समझा जा सकता है कि पुरुष में पुरी शब्द ही विशेषता के साथ परिवर्तित हो रहा है।

पुरी ( कण ATOM ), पुरुष ( ऊष्मा )

उपरोक्त प्रसंग में ही हमने ‘लोक’ को कण भी कहा था, उस (कण को) यदि पुरी मानें तो पुरुष होगा-

पुरुषोऽग्निः (श. ब्रा. १०.४.१.६)

उस कण में व्याप्त अग्नि व ऊष्मा ही पुरुष है क्योंकि किसी कण(ATOM) आदि में ऊष्मा सदैव व्याप्त होती है जो सम्पूर्ण कण को पूरित करती है अथवा पूर्ण करती है एवं उसके अस्तित्व को स्थाई बनाती है।

पुरुष धनान्नदानम् Purush Dhnanadanamचित्र 4 purush dhanannadanam

उपरोक्त वर्णन केवल पुरुष के विविध अर्थों का सूचक मात्र है जिससे पाठक व शोधार्थी लाभ ले सकते हैं क्योंकि रूढ़ार्थ से पृथक् यौगिकार्थ का विश्लेषण करना ही ब्राह्मण ग्रन्थ व निरुक्त का परम प्रयोजन है।

धनान्नदानम्

‘धनान्नदानम्’ यह पद अपने में ही बहुत सारी विशेषताओं को समाविष्ट किए हुए है। वस्तुतः यह वैदिक देवता, धन व अन्न का प्रदाता है जो इस धनान्नदान सूक्त का देवता है।जिस प्रकार नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि धन व अन्न को देने वाला चाहे वह मनुष्य हो अथवा प्रकृति का कोई पदार्थ तथा साक्षात् ईश्वर। वह धनान्नदान क्रिया का करने वाला कहाता है। सामान्यतः हम धन व अन्न के सन्दर्भ में लोकप्रचलित मान्यता व परम्परा से जो अर्थ समझते हैं वही यहाँ भी है परन्तु कुछ विशेषताओं के साथ तत्त्ववेत्ता महर्षियों का मत है जो हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे है –

1. धन

जिस प्रकार धन सभी मनुष्यों के लिए व्यवहार में प्रयोग होने वाली सबसे मुख्य वस्तु होती है जिसका प्रयोग कर्ता अपनी इष्ट सिद्धि की पूर्ति के लिए करता है।
आचार्य यास्क निरुक्त में कहते है-

धनं कस्मात्? धिनोतीति सतः।

अर्थात् जिससे मनुष्य तृप्ति को प्राप्त होते हैं। यह शब्द ‘ धि धारणे ‘ धातु से बहुल द्वारा ‘क्यु’ प्रत्यय ( उणादि २.८१ ) होकर निष्पन्न होता है।

परन्तु आचार्य अग्निव्रत ‘नैष्ठिक’ जी के निरुक्त भाष्य में वे कहते है कि –

“आधिदैविक संसार में प्रत्येक कण आदि पदार्थ धन ही कहलाता है, क्योंकि वह अन्य पदार्थों के साथ संयुक्त होकर उन्हें तृप्त अर्थात् अपेक्षाकृत स्थायित्व प्रदान करता है।”

इस प्रकार के अर्थ का श्रेय महर्षि दयानन्द कृत यजुर्वेद ४०.१ के मन्त्रभाष्य

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्वीधनम्॥ ( यजु ४०.१)

में आये धनम् शब्द का अर्थ वस्तुमात्रम् करने के कारण है।

अतः यह माना जा सकता है कि वेद मन्त्रों में अनेक प्रकरणों के आने पर धन का अर्थ प्रत्येक पदार्थ भी हो सकता है जैसे किसी भी प्रकार के यजन कर्म (सङ्गतिकरण) [ Fusion – Fision] में कोई पदार्थ मुख्यतः विनियमित होकर अथवा मुख्य अन्तर्सम्बन्ध दर्शाता हुआ हो सकता है।

पुरुष धनान्नदानम् Purush Dhnanadanam
चित्र 5 purush dhanannadanam

२. अन्न

सामान्यत: ‘ अन्न ‘ का अर्थ जो मनुष्यादि प्राणी के लिए सबसे अभीष्ट पदार्थ है जिसकी कामना सभी प्राणी को आजीवन रहती है। इसी सन्दर्भ में महर्षि यास्क कहते है –

अन्नं कस्मात् ? आनतं भूतेभ्यः । अत्तेर्वा ।

आचार्य यास्क इसे अप पूर्वक नम् धातु से क्विप् प्रत्यय होकर मानते हैं । अतः

अप + णम प्रह्वत्वे शब्दे च + क्विप् = आम्नः, अम्न = अन्न

एवं अद् भक्षणे धातु से ‘क्त’ प्रत्यय करके अन्न शब्द निष्पन्न होता है।

उणादिकोष ३.१० में प्राणार्थक ‘अन्’ धातु से ‘न’ प्रत्यय करके अन्न की सिद्धि की गयी हैं। क्योंकि यह प्राणियों को जीवित रखता है।

अतः उसका निष्कर्ष यह है कि धन व अन्न किसी प्राणी व पदार्थ के पोषण, रक्षण व जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण वस्तु होते है जिसे सभी प्राप्त करना चाहते है तथा उससे तृप्त होते है।

३. दान

जन‌सामान्य में दान का अर्थ प्रचलित ही है जो श्रेष्ठ पदार्थ किसी जरूरतमन्द को देना वह दान कहलाता है। इस प्रकार के कर्म को करने वाला निरुक्त के अनुसार है–

पुरुष धनान्नदानम् Purush Dhnanadanamचित्र 6 purush dhanannadanam

देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा।

जो दान देता है वह वस्तुतः देवता होता है क्योंकि लोक में भी देखा जाता है कि जो जिस पदार्थ से सम्पन्न तथा उस प्रकृष्ट भाव से युक्त होता है उसे देवता के गुणों से युक्त माना जाता है।
अतः धनान्नदान सूक्त में वे सभी धन व अन्न के दाता देवता ही है जो इस क्रिया में किसी भी रूप में संलग्न होते है।

आशा है कि आपको पुरुष एवं धनान्नदानम् purush dhanannadanam उपयोगी और जानकारीपूर्ण लगा होगा। ऐसी ही उपयोगी जानकारी और मार्गदर्शन के लिए जुड़े रहें boks.in के साथ। आपका सहयोग और विश्वास ही हमारी प्रेरणा है।

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