साहित्यदर्पण मङ्लाचरण Sahityadarpan Manglacharan

प्रिय विद्यार्थियों, इस पोस्ट में साहित्यदर्पण मङ्लाचरण Sahityadarpan Manglacharan का ससंदर्भ तथा सप्रसंग व्याख्या है। इसके अंत में व्याकरणात्मक टिप्पणी भी दिया गया है। यह देहली विश्वविद्यालय परास्नातक DU, M.A Sanskrit का previous year प्रश्न पत्र का उत्तर है।

Q1. अधोलिखित की व्याख्या कीजिए।
Explain the following: 

साहित्यदर्पण मङ्लाचरण Sahityadarpan Manglacharan

शरदिन्दुसुन्दररुचिश्चेतसि सा मे गिरां देवी।
अपहृत्य तमः सन्ततमर्थानखिलान् प्रकाशयतु ॥

अन्वय

सा शरदेन्दुरुचिः गिरां देवी मे चेतसि सन्ततं तमः अपहृत्य अखिलान् अर्थान् प्रकाशयतु ।

सन्दर्भ

प्रस्तुत पद्य साहित्यदर्पण के प्रथम परिच्छेद से उद्‌धृत है जिसके रचयिता ‘ अष्टादशभाषावारविलासिनी भुजङ्ग ’ ऐसी उपाधि से सम्पन्न आचार्य विश्वनाथ जी हैं।

प्रसङ्ग

प्रस्तुत पद्य में वाणी की देवी शारदा से प्रार्थना किए जाने का वर्णन आचार्य करते है।

अर्थ

(सा) वह (शरदेन्दुरुचिः) शरदकालीन चन्द्रमा की आभा वाली (गिरां) वाणी की (देवी) अधिष्ठात्री (मे) मेरे (चेतसि) चित्त में स्थित (सन्ततम्) फैले हुए (तमः) अज्ञानान्धकार का (अपहृत्य) अपहरण करके (अखिलान्) समस्त (अर्थान्) अर्थों को (प्रकाशयतु) प्रकाशित करे।

व्याख्या

आचार्य विश्वनाथ अपने साहित्यदर्पण नामक ग्रन्थ की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिए वाणी की देवी माँ शारदा से प्रार्थना करते हुए कहते है कि जिनकी कान्ति शरद‌कालीन चन्द्रमा के सदृश है अथवा उस चन्द्रमा की कान्ति से भी अधिक है, ऐसी वाणी की देवी शारदा मेरे अज्ञान रूपी अन्धकार का अपहरण करे।

जिस प्रकार पूरे वर्षभर में चन्द्रमा की सबसे अधिक कान्ति व प्रभाविता शरद‌पूर्णिमा की रात्रि में होती है और घनघोर अन्धकार को दूर करने का सामर्थ्य उसमें होता है इसी प्रकार की सम्भावना यहाँ भी की जा रही है तथा वह वाग्देवी समस्त शाश्वत अर्थ को प्रदान करें, उसके अर्थों को समझने का सामर्थ्य प्रदान करें।

यहाँ आचार्य विश्वनाथ साहित्यशास्त्रीय ग्रन्थ का प्रणयन करने जा रहे है। अतः यह द्योतित हो रहा है कि समस्त साहित्यशास्त्रीय अर्थों का अवगमन मुझे प्राप्त होवे तथा हम सभी पाठकों को प्राप्त होवे ऐसी प्रार्थना वाग्देवी से कर रहे।

विशेष

छन्द

 क) आर्या
यस्याः पादे प्रथमे द्वादशमात्रास्तथा तृतीयेऽपि ।
अष्टादश द्वितीये चतुर्थके पञ्चदश साऽर्या ॥

ख) अपहृत्य – अप + हृञ् हरणे + क्त्वा (ल्यप्)

ग) सन्ततम् – सम् + तन् + क्त (द्वितीया एकवचन)

घ) मे – षष्ठी विभक्ति एकवचन (‘ मम ’ विकल्प से)

ङ) तमः – तमस् प्रातिपदिक द्वितीय एकवचन

च) गिरां – गिर् प्रातिपदिक षष्ठी बहुवचन

छ) प्रकाशयतु – प्र + काशृ दीप्तौ ( आत्मनेपदी धातु ) लोट्लकार प्रथमपुरुष एकवचन ( परस्मैपद )
[ णिचश्च ( 1.3.74 ) से आत्मनेपदी धातुओं को भी परस्मैपदी रूप प्राप्त हुआ ]

गुण अलंकार रीति 

‘उत्कर्षहेतवः प्रोक्ता गुणालङ्‌काररीतयः।’

सन्दर्भ

प्रस्तुत पद्य साहित्यदर्पण के प्रथम परिच्छेद से उद्‌धृत है जिसके रचयिता ‘अष्टादशभाषावारविलासिनी भुजङ्ग’ ऐसी उपाधि से सम्पन्न आचार्य विश्वनाथ जी हैं।

प्रसङ्ग

प्रस्तुत पद्यांश में साहित्य के उत्कर्ष हेतुओं की चर्चा की जा रही है।

अर्थ

(गुणालङ्‌काररीतयः) गुण, अलंकार तथा रीति (उत्कर्षहेतवः) उत्कर्ष के हेतु (प्रोक्ता) कहे गए है।

व्याख्या

आचार्य विश्वनाथ प्रथम परिच्छेद में विभिन्न काव्यशास्त्रियों के मत का खण्डन-मण्डन करने के पश्चात् अपना काव्य लक्षण ‘ वाक्यं रसात्मक काव्यम्’ को प्रस्तुत करके अन्तिम में कहते हैं-

उत्कर्षहेतवः प्रोक्ता गुणालङ्काररीतयः ।

आचार्य विश्वनाथ ने गुण,  अलङ्कार व रीति को उत्कर्ष के हेतु माना है। ऐसा मानने का उनका मन्तव्य है कि मुख्य रूप से काव्य की आत्मा तो रस हुआ करती है एवं गुणादि उसके सहायक अथवा विशिष्टता के रूप में होते है।

१) गुण

गुणाः शौर्यादिवत्

आचार्य मम्मट के काव्यलक्षण में प्रयुक्त ‘गुण’ पद का विवेचन आचार्य विश्वनाथ ने किया है। सर्वप्रथम उनका काव्यलक्षण प्रस्तुत करते है –

तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलङ्‌कृती पुनः क्वापि ।

इस सम्पूर्ण काव्य लक्षण के विवेचन में ‘सगुणौ शब्दार्थौ’ पर विचार विश्वनाथ करते हुए कहते है कि –

शब्दार्थ का सगुणत्व जो विशेषण है वह असङ्गत है क्योंकि शब्दार्थ विशेष्य ,सगुणत्व विशेषण सिद्ध स्वयं आचार्य मम्मट के मत में नहीं हो सकता वे तो गुणों को रस का धर्म स्वीकार करते हैं। –

” ये रसाङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः “

अर्थात् शौर्य आदि आत्मा के अपृथक् सिद्ध धर्म हुआ करते हैं (न कि शरीर के) वैसे ही माधुर्य आदि रसरुप काव्यात्मतत्व के अपृथक् सिद्ध धर्म हुआ करते हैं (न कि शब्द और अर्थ रूप काव्य शरीर के)

शंका उठती है कि शब्दार्थ युगल को सगुण कहने पर उसमें रस है अथवा नहीं ? यदि कहे कि नहीं है तब तो उसमें रस की सत्ता भी अस्वीकार हो जाएगी क्योंकि गुण, रस के *अपृथक् सिद्ध धर्म* होते हैं। 

यदि शब्दार्थ के सगुण कहने पर उसमें रस होता है तो सगुण की जगह सरस कहें। यह अधिक उपयुक्त होगा। इसमें भी यदि गुणों को अभिव्यञ्जक के रूप में देखे तो वह अभिव्यञ्जक नहीं केवल *उत्कर्षामात्राधायक* होते हैं।

२) अलङ्कार

अलङ्काराः कटककुण्डलादिवत्

जिस प्रकार शरीर की शोभा को अधिक करने के लिए आभूषण हुआ करते है उसी प्रकार शब्दार्थ शरीररूपी काव्य में अलङ्कार, आभूषण सदृश होते है न कि आत्मतत्व की भूमिका निभाते हैं। इसे भी उत्कर्ष का हेतु माना, जो काव्य की शोभा सामान्य से विशेष कर देता है। वक्रोक्तिजीवितम् के रचयिता आचार्य कुन्तक द्वारा प्रतिपादित काव्य लक्षण – ‘वक्रोक्ति: कात्यजीवितम् ‘ के विवेचन में आचार्य विश्वनाथ  वक्रोक्ति को केवल अलङ्कार रूप से प्रतिपादित करके उपरोक्त आभूषणवत् स्वीकार किया गया है।

३) रीति

रीतयोऽवयवसंस्थानविशेषवत् ।

आचार्य वामन के काव्यलक्षण ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ के विवेचन में इसे केवल काव्य के संघटना विशेष ही माना है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति का शरीर सुडौल, हष्ट-पुष्ट, सुन्दरमुखाकृति वाला होता है उसी प्रकार काव्य की पाञ्चाली आदि रीतियाँ उसकी संघटना – संरचना के स्वरूप को दर्शाती है न कि आत्मतत्व को। जिसकी सुन्दर मुखादि की आकृति होती है वह निश्चय ही सुन्दर होता है वैसे ही काव्य में भी इस प्रकार का पद‌विन्यास जो उसी शैली को दर्शाता है काव्य के उत्साहोत्कर्ष में सहायक होता है।

इसी प्रकार आचार्य विश्वनाथ अपने काव्य लक्षण को दृढ़ता से प्रतिपादित करते हुए उस आत्मा के शरीर (काव्य) को विभूषित करने वाले तत्त्व गुण,अलंकार व रीति को उत्कर्षाधायक स्वीकार करते है।

विशेष –

१) उत्कर्षहेतवः – उत्कर्षस्य उत्कर्षाणां वा हेतुः उत्कर्षहेतुः ते उत्कर्षहेतवः [षष्ठीतत्पुरुष]

२) प्रोक्ता – प्र + वच् परिभाषणे + क्त + टाप्

३) अगुणालङ्काररीतयः – गुणश्च अलंकारश्च रीतिश्च ते गुणालङ्काररीतयः (इतरेतरयोग द्वन्द्व)

आशा है कि आपको साहित्यदर्पण मङ्लाचरण Sahityadarpan Manglacharan उपयोगी और जानकारीपूर्ण लगा होगा। ऐसी ही उपयोगी जानकारी और मार्गदर्शन के लिए जुड़े रहें boks.in के साथ। आपका सहयोग और विश्वास ही हमारी प्रेरणा है।

FAQS

1). आचार्य विश्वनाथ किस शताब्दी के है?
उत्तर- 14वीं शताब्दी

2). आचार्य विश्वनाथ और आचार्य विश्वनाथ पंचानन एक ही व्यक्ति है या भिन्न?
उत्तर- नहीं, आचार्य विश्वनाथ 14वीं शताब्दी के काव्यशास्त्री है और आचार्य विश्वनाथ पंचानन 19 वीं शताब्दी के न्यायशास्त्री है।

3). आचार्य विश्वनाथ किस संप्रदाय से थे?
उत्तर- काव्यक्षेत्र में रससंप्रदाय तथा भक्तिक्षेत्र में वैष्णवसंप्रदाय से

4). आचार्य विश्वनाथ की एक रचना है।
उत्तर- प्रशस्तरत्नावली

5). आचार्य विश्वनाथ का काव्यलक्षण है। 
उत्तर- वाक्यं रसात्मकं काव्यम्

Sharing Is Caring:

Leave a Comment