षड् भावविकार Shadbhav Vikar

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प्रिय विद्यार्थियों, इस पोस्ट में षड् भावविकार shadbhav vikar , तिस्र एव देवता Tisra eva devta की टिप्पणी व्याख्या है। यह देहली विश्वविद्यालय परास्नातक DU, M.A Sanskrit का previous year प्रश्न पत्र का उत्तर है।

6. निम्नलिखित में से किसी एक पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए –

क) षड् भावविकार

आचार्य यास्क ने निरुक्त की महती परम्परा में एक विशिष्ट भाषा वैज्ञानिक पक्ष का उपयोग किया है। यूँ तो मानवीय सभ्यता सदा से ही भाषा के विविध प्रयोगों का अनुशीलन करती है, परन्तु जिस प्रकार आचार्य पाणिनि ने अनुवृत्ति की लोकप्रचलित शैली को सुगठित रूप में अपने शास्त्र में प्रयोग किया। उसी प्रकार की अन्य लोकप्रचलित शैली का प्रयोग यहाँ आचार्य यास्क ने अपने ग्रन्थ निरुक्त में किया हैं।

निरुक्त में आचार्य यास्क अपने बहुत से पूर्व निरुक्तों- वैयाकरणों का सम्मानपूर्वक उल्लेख करते हैं। उसी परम्परा में कहा-

षड् भावविकाराः भवन्तीति वार्ष्यायणिः।

आचार्य वार्ष्यायणि (यास्क से पूर्व के नैरुक्त) के मत में छः प्रकार के भावविकार होते हैं। इसी प्रसंग में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि भाव क्या है?

‘ भावप्रधानमाख्यातम् ‘

जो आख्यात (क्रिया रूप) है उनमें भाव क्रिया की प्रधानता होती है। अतः भाव-क्रिया-आख्यात का परस्पर सम्बन्ध होता है।
इस सन्दर्भ में वह 6 भावविकार है-

‘ जायतेऽस्तिविपरिणमते वद्धते अपक्षीयते विनश्यतीति ‘

1. जायते

आचार्य  यास्क कहते हैं-

” जायते इति पूर्वभावस्यादिमाचष्टे नापरभावमाचष्टे, न प्रतिषेधति”

अर्थात् किसी भी क्रिया का जन्म ही इसकी प्रारम्भिक अवस्था होती है, जो ‘जायते’ नामक भावविकार द्वारा प्रकट होती है परंतु वह अपने पश्चात् होने वाले भावविकार को कहने में असमर्थ है और न ही उसका प्रतिषेध कर सकती है।


चित्र 1. षड् भावविकार Shadbhav Vikar

वस्तुतः इसका आशय है कि कोई ‘घट’ जब निर्माण की अवस्था में होता है तब जिस क्षण एक कुम्हार के मन में यह भाव आया कि मुझे घट का निर्माण करना है उस विचार से लेकर जब घट बन जाए उस अवस्था से पूर्व के क्षण तक का समय इस जायते भावविकार का समय कहलाता है। आचार्य कहते है कि यह सबसे पहला भावविकार होने के कारण अपने से पूर्व की क्रिया को कहने में असमर्थ होता है और न ही बाद की क्रिया को क्योंकि उत्पन्न करने का भाव सबसे प्रारम्भिक है तथा जो अभी निर्माणाधीन है उसके भविष्य का निर्धारण किस प्रकार किया जा सकता है। यह भावविकार अपने से आगे आने वाले क्रियाओं अथवा भावविकारों का प्रतिषेध भी नहीं करता कि यह होंगे कि नहीं। अतः उत्पन्न हुआ पदार्थ क्या है यह बात इस पर निर्भर करता है।

2. अस्ति

आचार्य कहते हैं-

“अस्तीत्युत्पन्नस्य सत्वस्यावधारणम्”

अर्थात् उत्पन्न हुए पदार्थ की सत्ता का निश्चय इस भावविकार द्वारा होता है क्योंकि यह अपने पूर्व के भावविकार ‘जायते’ का बोध कराता है। कोई पदार्थ जब उत्पन्न ही नहीं होगा तब उसका अस्तित्व निश्चित कैसे होगा। एतदर्थ ‘अस्ति’ भावविकार अपने अग्रिम भावविकार (विपरिणमते आदि) का कथन नहीं करता तथा न ही उसका प्रतिषेध करता है।


चित्र 2. षड् भावविकार Shadbhav Vikar

जैसे कोई घट उत्पन्न होकर यह घट है ऐसा अस्तित्व में आता है। वह पदार्थ जब तक उत्पन्न नहीं होगा तब तक कैसे वह अपनी सत्ता का प्रदर्शन कर सकता है । इस कारण आवश्यक है कि वह पदार्थ जायते भावविकार से होकर अस्ति भावविकार को इंगित करे।  उत्पन्नस्य सत्वस्यावधारणम् इसका तात्पर्य है कि उत्पन्न हुए पदार्थ का अवधारण कि हाँ यह पदार्थ उत्पन्न हो गया और यह प्रयोग के योग्य है।

3. विपरिणमते

आचार्य कहते हैं-

“विपरिणमत इत्यप्रच्यवमानस्य तत्त्वाद्विकारम्”

यह भावविकार अपने अस्तित्व में रहते हुए किसी अल्पपरिवर्तन का बोध कराता है। जो वृद्धि तथा क्षय दोनों हो सकता है।


चित्र 3. षड् भावविकार Shadbhav Vikar

जैसे कोई ‘घट’ उत्पन्न होकर अपने अस्तित्व में रहते हुए किञ्चित् परिवर्तन (शनैः शनैः घड़े की गुणवत्ता में परिवर्तन) को दर्शाता है। इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि जब घट उत्पन्न होकर ग्राहक के द्वारा उसके घर में पहुंचता है तो वह ग्राहक उपयोग से पूर्व उस घड़े को पानी में डूबाता है, जिससे उसकी गुणवत्ता में कुछ परिवर्तन होती है।

4. वर्द्धते

आचार्य कहते हैं-

“वर्द्धत इति वाङ्गाभ्युच्चयं सांयौगिकानां वार्थानाम्। वर्धते विजयेनेति वा। वर्धते शरीरेणेति वा”

‘वा अङ्ग-अभ्युच्चयम्’ अर्थात् जो अपने अङ्गों की वृद्धि का वर्णन करता है। यहाँ देखा जा सकता है कि अङ्ग के अभ्युच्चय का तात्पर्य उसके अवयव भूतों की वृद्धि से है। सरल शब्दों में कहें तो ‘घट’ को जब पानी में रखा गया तब उसकी गुणवत्ता में वृद्धि, उसके घटावयव के सुदृढ़ होने से ‘वर्द्धते’ क्रिया परिलक्षित होती है।


चित्र 4. षड् भावविकार Shadbhav Vikar

आचार्य यास्क यहाँ कहते हैं कि ‘शरीरेण वर्द्धते’ स्वाङ्गाभ्युच्चय का उदाहरण तथा ‘वर्द्धते विजयेन’ सांयौगिकानाम् अर्थानाम् का उदाहरण है।

ध्यातव्य है कि ‘विपरिणमते’ व ‘वर्द्धते’ भावविकार में किंचित् भेद होते हुए भी अपने महत्त्वता का उद्बोधन यह दोनों क्रियाएं करते हैं।

तथा अपने से पूर्व जायते, अस्ति विपरिणमते भावविकार को कहते हैं पश्चात् के भावविकारों को नहीं।

5. अपक्षीयते

आचार्य यास्क कहते हैं-

“अपक्षीयते इत्येतेनैव व्याख्यातः प्रतिलोमम्”

जो यह भावविकार ‘वर्द्धते का प्रतिलोमक है अर्थात् जो क्रिया वृद्धि को प्राप्त होती है उसका क्षरण-पतन भी होती है उसी प्रक्रिया को यहां आचार्य कहना चाहते है।


चित्र 5. षड् भावविकार Shadbhav Vikar

जैसे कोई ‘घट’ प्रयोग करते रहने पर अपनी गुणवत्ता को शनैः शनै: कम करते रहते है। यही ‘अपक्षीयते’ भावविकार के अन्तर्गत है यह जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्द्धते को कहता है तथा पश्चात् के भावविकार को कहने में असमर्थ होता है।

6. विनश्यते

आचार्य कहते है –

“विनश्यतीत्यपर‌भावस्यादिमाचष्टे न पूर्वभावमाष्टे न प्रतिषेधति।”

” विनाश एव अपरभावः तस्यादिमाचष्टे।”

अर्थात् यह अन्तिम क्रिया को दर्शाती है। यह जायते व अस्ति का किञ्चित संकेत करती है क्योंकि जो पदार्थ नष्ट हो रहा है, उसका उत्पन्न होना व सत्ता में होना अनिवार्य है अतः यह परिणामते, वर्द्धते व अपक्षीयते के विषय में मौन रहती है।


चित्र 6. षड् भावविकार Shadbhav Vikar

यह षड् भावविकार किसी भी अनित्य पदार्थ की उत्पत्ति की क्रमबद्ध व्याख्या करती है वस्तुतः इसका बोध हमें न हो परन्तु यह सूक्ष्म रूप से अपने स्वरूप को स्थापित करती है। इस वैज्ञानिक प्रक्रिया का आचार्य यास्क दिग्दर्शन कराना आवश्यक समझते हैं क्योंकि उनका प्रधान मत “सर्वाणि नामानि आख्यातजानि” है इसके लिए भाव व आख्यात का बोध होना आवश्यक है। अतः आचार्य यास्क के निरुक्त शास्त्र की मूलभूत अवधारणा इस षड्भावविकार में ही सन्निहित है।

ख) तिस्र एव देवता इति

आचार्य यास्क अपने दैवत काण्ड में देवता की प्रधानता का वर्णन कर रहे हैं। जिससे मन्त्रों में आने वाले देवता की महत्वता का प्रदर्शन होता है, अतः कहा–

तिस्र एवं देवता इति नैरुक्ताः।

आचार्य यास्क तो स्वयं नैरुक्त है परन्तु अपने परम्परा का तथा मत का प्रदर्शन करते हुए ही कह रहे है कि याज्ञिकों आदि के द्वारा विविध प्रकार के देवताओं को हवि प्रदान की जाती है उन वैदिक देवताओं का हम ३ प्रकार से विभाग कर सकते हैं जो एक विशिष्टता को दर्शाता है क्योंकि सभी देवताओं को ३ प्रभागों में विभक्त करना निरुक्तकारों की प्रचलित परम्परा है जिसके किंचित् निर्देश आचार्य शौनककृत बृहद्देवता में मिलते हैं –

प्रथमो भजतेे त्वासां वर्गोऽस्तिमिह दैवतम्।
द्वितीयो वायुमिन्द्रं वा तृतीयः सूर्यमेव च।। (बृ.दे.1.5)

तभी प्रकार आचार्य यास्क निरुक्त में लिखते हैं–

अग्निः पृथिवीस्थानः । वायुर्वेन्द्रो वान्तरिक्षस्थानः ।
सूर्य द्युस्थानः ।

1. पृथिवीस्थानीय देवता

अग्नि, सोम, बृहस्पति, त्वष्टा, प्रजापति, विश्वकर्मा, अदिति – दिति आदि देवियाँ, नदीयाँ आदि ।

2. अन्तरिक्ष स्थानीय देवता

इन्द्र, मातरिश्वा (मातरिश्र्वन् ), रुद्र, मरुत्, पर्जन्य, आपः (जल), अपांगपात्, त्रित आपत्य, अहिर्बुधन्य आदि ।

3. द्युस्थानीय देवता

आदित्य, सविता (सवितृ), सूर्य, पूषा (पूषन्), मित्र, वरुण, अर्यमा (अर्यमन्), अश्विनौ आदि ।

इस प्रकार तीन प्रकार के विभाग देवताओं के विषय में किये जाते हैं । निरुक्त के ७-९ अध्यायों में पृथिवी स्थानीय देवतायों का वर्णन, १०-११ अध्यायों में अन्तरिक्ष स्थानीय देवताओं का वर्णन तथा १२ वें अध्याय में द्युस्थानीय देवताओं का वर्णन किया गया है।

यदि पृथिवी स्थान, अन्तरिक्ष स्थान व द्युस्थान पर विशिष्ट चिन्तन किया जाए तो निम्न तथ्य प्रकट होते है-

क). पृथिवी
ऋग्वा अयं (पृथिवी) लोकः [ जै ब्रा. २,३८०]
अर्थात ऋक् ऋचाएँ ही पृथिवी लोक कहलाती है। वही निघण्टु में आचार्य पृथिवी को अन्तरिक्षस्थानीय मानते है
पृथिवी अन्तरिक्षनामानि [निघ. १.३]

अतः इस सन्दर्भ से संकेत मिलता है कि ऋक् प्रकार की ऋचाएँ, जो अन्तरिक्ष में स्थित होती हुई तथा जिन पदार्थों में ‘ऋक्’ ऋचाओं की प्रधानता होती है और उनमें ‘भू‌ः’ व्याहृति रश्मियों की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है वह पदार्थ व देवता पृथिवीस्थानीय देवता होते है क्योंकि इन पृथिवीस्थानीय देवतावाची नामों में ‘द्यावापृथिवी’ भी पढ़े गए है, जो द्युलोक – पृथिवी लोक का वाचक।

ऋषियों के शब्दों का रुढ़ार्थ न करके यौगिक अर्थ लेने से ही उपरोक्त भाव प्रकट होते है अन्यथा पृथिवी को केवल हमारे सौर मण्डल का पृथिवी नामक ग्रह मानना एक भ्रान्ति है क्योंकि ‘वेद’ संकुचित नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के है । ब्राह्मण व निरुक्तादि  उस क्रियाविज्ञान के द्योतक ग्रन्थ हैं।

ख). अन्तरिक्ष
अन्तरिक्षं वै यजुषामायतनम् [ गो.ब्रा.पू. २.२४]
अन्तरिक्षलोको यजुर्वेदः [ ष. ब्रा. १.५]

अर्थात जो भी पदार्थ ‘ यजुः ‘ ऋचासम्पन्न हो वह अन्तरिक्ष कहलाने योग्य हो सकता है और इसमें ‘भुवः’ व्याहृति की प्रधानता होती है। इसके विषय में आचार्य यास्क निरुक्त के द्वितीय अध्याय में कहते है –

अन्तरिक्षं कस्मात् ? अन्तरा क्षान्तं भवति, अन्तरा इमे इति वा शरीरेष्वन्तः अक्षयमिति वा ।

जो धावापृथिवी के मध्य में स्थित हो वह अन्तरिक्ष है, उसमें स्थित पद वा देवता अन्तरिक्षस्थानीय देवता कहाते है । जो स्वभावतः प्रकाशित हो द्यावा तथा जो स्वभावतः अप्रकाशित हो वह पृथिवी नाम से भी कहे जाते है। । अतः इनके मध्य का भाग ही अन्तरिक्ष कहाता है। यथा – सूर्य (प्रकाशित) व पृथिवी ग्रह (अप्रकाशित) के मध्य का स्थान अन्तरिक्ष सञ्ज्ञा वाला होता है।

ग). द्युलोक

अर्चि: (आदित्यस्य ) सामानि ( श. ब्रा. १०.५.१.५ )
साम वा असौ ( द्यु ) लोकः (तां. ब्रा. ४.३.५ )

अर्थात् जिसमें ‘साम’ ऋचाओं की प्रधानता होती है वह द्युलोक कहलाता है।

यहाँ पाठकों को ज्ञात है ऋक् व साम की साम्यता सर्वविदित है उसी भांति पूर्व वर्णनों में भी द्युलोक – पृथिवीलोक [ द्यावापृथिवी ] की साम्यता सर्वविदित है। अतः ब्राह्मणग्रन्थों व निरुक्त के आचार्यों का समन्वयपूर्वक विचार यही है कि ऋक्, यजुः, साम ऋचाओं की प्रधानता वाले पदार्थ व देवता क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युस्थानीय कहलाते है।

shadbhav vikar क) षड् भावविकार आचार्य यास्क ने निरुक्त की महती परम्परा में एक विशिष्ट भाषा वैज्ञानिक पक्ष का उपयोग किया है। यूँ तो मानवीय सभ्यता सदा से ही भाषा के विविध प्रयोगों का अनुशीलन करती है, परन्तु जिस प्रकार आचार्य पाणिनि ने अनुवृत्ति की लोकप्रचलित शैली को सुगठित रूप में अपने शास्त्र में प्रयोग किया। उसी प्रकार की अन्य लोकप्रचलित शैली का प्रयोग यहाँ आचार्य यास्क ने अपने ग्रन्थ निरुक्त में किया हैं। निरुक्त में आचार्य यास्क अपने बहुत से पूर्व निरुक्तों- वैयाकरणों का सम्मानपूर्वक उल्लेख करते हैं। उसी परम्परा में कहा- षड् भावविकाराः भवन्तीति वार्ष्यायणिः। आचार्य वार्ष्यायणि (यास्क से पूर्व के नैरुक्त) के मत में छः प्रकार के भावविकार होते हैं। इसी प्रसंग में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि भाव क्या है? ' भावप्रधानमाख्यातम् ' जो आख्यात (क्रिया रूप) है उनमें भाव क्रिया की प्रधानता होती है। अतः भाव-क्रिया-आख्यात का परस्पर सम्बन्ध होता है। इस सन्दर्भ में वह 6 भावविकार है- ' जायतेऽस्तिविपरिणमते वद्धते अपक्षीयते विनश्यतीति '  1. जायते आचार्य  यास्क कहते हैं- " जायते इति पूर्वभावस्यादिमाचष्टे नापरभावमाचष्टे, न प्रतिषेधति" अर्थात् किसी भी क्रिया का जन्म ही इसकी प्रारम्भिक अवस्था होती है, जो 'जायते' नामक भावविकार द्वारा प्रकट होती है परंतु वह अपने पश्चात् होने वाले भावविकार को कहने में असमर्थ है और न ही उसका प्रतिषेध कर सकती है।  चित्र 1. षड् भावविकार Shadbhav Vikar वस्तुतः इसका आशय है कि कोई 'घट' जब निर्माण की अवस्था में होता है तब जिस क्षण एक कुम्हार के मन में यह भाव आया कि मुझे घट का निर्माण करना है उस विचार से लेकर जब घट बन जाए उस अवस्था से पूर्व के क्षण तक का समय इस जायते भावविकार का समय कहलाता है। आचार्य कहते है कि यह सबसे पहला भावविकार होने के कारण अपने से पूर्व की क्रिया को कहने में असमर्थ होता है और न ही बाद की क्रिया को क्योंकि उत्पन्न करने का भाव सबसे प्रारम्भिक है तथा जो अभी निर्माणाधीन है उसके भविष्य का निर्धारण किस प्रकार किया जा सकता है। यह भावविकार अपने से आगे आने वाले क्रियाओं अथवा भावविकारों का प्रतिषेध भी नहीं करता कि यह होंगे कि नहीं। अतः उत्पन्न हुआ पदार्थ क्या है यह बात इस पर निर्भर करता है। 2. अस्ति आचार्य कहते हैं- "अस्तीत्युत्पन्नस्य सत्वस्यावधारणम्" अर्थात् उत्पन्न हुए पदार्थ की सत्ता का निश्चय इस भावविकार द्वारा होता है क्योंकि यह अपने पूर्व के भावविकार 'जायते' का बोध कराता है। कोई पदार्थ जब उत्पन्न ही नहीं होगा तब उसका अस्तित्व निश्चित कैसे होगा। एतदर्थ 'अस्ति' भावविकार अपने अग्रिम भावविकार (विपरिणमते आदि) का कथन नहीं करता तथा न ही उसका प्रतिषेध करता है। चित्र 2. षड् भावविकार Shadbhav Vikar जैसे कोई घट उत्पन्न होकर यह घट है ऐसा अस्तित्व में आता है। वह पदार्थ जब तक उत्पन्न नहीं होगा तब तक कैसे वह अपनी सत्ता का प्रदर्शन कर सकता है । इस कारण आवश्यक है कि वह पदार्थ जायते भावविकार से होकर अस्ति भावविकार को इंगित करे।  उत्पन्नस्य सत्वस्यावधारणम् इसका तात्पर्य है कि उत्पन्न हुए पदार्थ का अवधारण कि हाँ यह पदार्थ उत्पन्न हो गया और यह प्रयोग के योग्य है।  3. विपरिणमते आचार्य कहते हैं- "विपरिणमत इत्यप्रच्यवमानस्य तत्त्वाद्विकारम्" यह भावविकार अपने अस्तित्व में रहते हुए किसी अल्पपरिवर्तन का बोध कराता है। जो वृद्धि तथा क्षय दोनों हो सकता है। चित्र 3. षड् भावविकार Shadbhav Vikar जैसे कोई 'घट' उत्पन्न होकर अपने अस्तित्व में रहते हुए किञ्चित् परिवर्तन (शनैः शनैः घड़े की गुणवत्ता में परिवर्तन) को दर्शाता है। इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि जब घट उत्पन्न होकर ग्राहक के द्वारा उसके घर में पहुंचता है तो वह ग्राहक उपयोग से पूर्व उस घड़े को पानी में डूबाता है, जिससे उसकी गुणवत्ता में कुछ परिवर्तन होती है। 4. वर्द्धते आचार्य कहते हैं- "वर्द्धत इति वाङ्गाभ्युच्चयं सांयौगिकानां वार्थानाम्। वर्धते विजयेनेति वा। वर्धते शरीरेणेति वा" 'वा अङ्ग-अभ्युच्चयम्' अर्थात् जो अपने अङ्गों की वृद्धि का वर्णन करता है। यहाँ देखा जा सकता है कि अङ्ग के अभ्युच्चय का तात्पर्य उसके अवयव भूतों की वृद्धि से है। सरल शब्दों में कहें तो 'घट' को जब पानी में रखा गया तब उसकी गुणवत्ता में वृद्धि, उसके घटावयव के सुदृढ़ होने से 'वर्द्धते' क्रिया परिलक्षित होती है। चित्र 4. षड् भावविकार Shadbhav Vikar आचार्य यास्क यहाँ कहते हैं कि 'शरीरेण वर्द्धते' स्वाङ्गाभ्युच्चय का उदाहरण तथा 'वर्द्धते विजयेन' सांयौगिकानाम् अर्थानाम् का उदाहरण है। ध्यातव्य है कि 'विपरिणमते' व 'वर्द्धते' भावविकार में किंचित् भेद होते हुए भी अपने महत्त्वता का उद्बोधन यह दोनों क्रियाएं करते हैं। तथा अपने से पूर्व जायते, अस्ति विपरिणमते भावविकार को कहते हैं पश्चात् के भावविकारों को नहीं। 5. अपक्षीयते आचार्य यास्क कहते हैं- "अपक्षीयते इत्येतेनैव व्याख्यातः प्रतिलोमम्" जो यह भावविकार 'वर्द्धते का प्रतिलोमक है अर्थात् जो क्रिया वृद्धि को प्राप्त होती है उसका क्षरण-पतन भी होती है उसी प्रक्रिया को यहां आचार्य कहना चाहते है। चित्र 5. षड् भावविकार Shadbhav Vikar जैसे कोई 'घट' प्रयोग करते रहने पर अपनी गुणवत्ता को शनैः शनै: कम करते रहते है। यही 'अपक्षीयते' भावविकार के अन्तर्गत है यह जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्द्धते को कहता है तथा पश्चात् के भावविकार को कहने में असमर्थ होता है। 6. विनश्यते आचार्य कहते है - "विनश्यतीत्यपर‌भावस्यादिमाचष्टे न पूर्वभावमाष्टे न प्रतिषेधति।" " विनाश एव अपरभावः तस्यादिमाचष्टे।" अर्थात् यह अन्तिम क्रिया को दर्शाती है। यह जायते व अस्ति का किञ्चित संकेत करती है क्योंकि जो पदार्थ नष्ट हो रहा है, उसका उत्पन्न होना व सत्ता में होना अनिवार्य है अतः यह परिणामते, वर्द्धते व अपक्षीयते के विषय में मौन रहती है। चित्र 6. षड् भावविकार Shadbhav Vikar यह षड् भावविकार किसी भी अनित्य पदार्थ की उत्पत्ति की क्रमबद्ध व्याख्या करती है वस्तुतः इसका बोध हमें न हो परन्तु यह सूक्ष्म रूप से अपने स्वरूप को स्थापित करती है। इस वैज्ञानिक प्रक्रिया का आचार्य यास्क दिग्दर्शन कराना आवश्यक समझते हैं क्योंकि उनका प्रधान मत "सर्वाणि नामानि आख्यातजानि" है इसके लिए भाव व आख्यात का बोध होना आवश्यक है। अतः आचार्य यास्क के निरुक्त शास्त्र की मूलभूत अवधारणा इस षड्भावविकार में ही सन्निहित है। ख) तिस्र एव देवता इति आचार्य यास्क अपने दैवत काण्ड में देवता की प्रधानता का वर्णन कर रहे हैं। जिससे मन्त्रों में आने वाले देवता की महत्वता का प्रदर्शन होता है, अतः कहा– तिस्र एवं देवता इति नैरुक्ताः। आचार्य यास्क तो स्वयं नैरुक्त है परन्तु अपने परम्परा का तथा मत का प्रदर्शन करते हुए ही कह रहे है कि याज्ञिकों आदि के द्वारा विविध प्रकार के देवताओं को हवि प्रदान की जाती है उन वैदिक देवताओं का हम ३ प्रकार से विभाग कर सकते हैं जो एक विशिष्टता को दर्शाता है क्योंकि सभी देवताओं को ३ प्रभागों में विभक्त करना निरुक्तकारों की प्रचलित परम्परा है जिसके किंचित् निर्देश आचार्य शौनककृत बृहद्देवता में मिलते हैं - प्रथमो भजतेे त्वासां वर्गोऽस्तिमिह दैवतम्। द्वितीयो वायुमिन्द्रं वा तृतीयः सूर्यमेव च।। (बृ.दे.1.5) तभी प्रकार आचार्य यास्क निरुक्त में लिखते हैं– अग्निः पृथिवीस्थानः । वायुर्वेन्द्रो वान्तरिक्षस्थानः । सूर्य द्युस्थानः । 1. पृथिवीस्थानीय देवता अग्नि, सोम, बृहस्पति, त्वष्टा, प्रजापति, विश्वकर्मा, अदिति - दिति आदि देवियाँ, नदीयाँ आदि । 2. अन्तरिक्ष स्थानीय देवता इन्द्र, मातरिश्वा (मातरिश्र्वन् ), रुद्र, मरुत्, पर्जन्य, आपः (जल), अपांगपात्, त्रित आपत्य, अहिर्बुधन्य आदि । 3. द्युस्थानीय देवता आदित्य, सविता (सवितृ), सूर्य, पूषा (पूषन्), मित्र, वरुण, अर्यमा (अर्यमन्), अश्विनौ आदि । इस प्रकार तीन प्रकार के विभाग देवताओं के विषय में किये जाते हैं । निरुक्त के ७-९ अध्यायों में पृथिवी स्थानीय देवतायों का वर्णन, १०-११ अध्यायों में अन्तरिक्ष स्थानीय देवताओं का वर्णन तथा १२ वें अध्याय में द्युस्थानीय देवताओं का वर्णन किया गया है। यदि पृथिवी स्थान, अन्तरिक्ष स्थान व द्युस्थान पर विशिष्ट चिन्तन किया जाए तो निम्न तथ्य प्रकट होते है- क). पृथिवी ऋग्वा अयं (पृथिवी) लोकः [ जै ब्रा. २,३८०] अर्थात ऋक् ऋचाएँ ही पृथिवी लोक कहलाती है। वही निघण्टु में आचार्य पृथिवी को अन्तरिक्षस्थानीय मानते है पृथिवी अन्तरिक्षनामानि [निघ. १.३] अतः इस सन्दर्भ से संकेत मिलता है कि ऋक् प्रकार की ऋचाएँ, जो अन्तरिक्ष में स्थित होती हुई तथा जिन पदार्थों में 'ऋक्' ऋचाओं की प्रधानता होती है और उनमें 'भू‌ः' व्याहृति रश्मियों की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है वह पदार्थ व देवता पृथिवीस्थानीय देवता होते है क्योंकि इन पृथिवीस्थानीय देवतावाची नामों में 'द्यावापृथिवी' भी पढ़े गए है, जो द्युलोक - पृथिवी लोक का वाचक। ऋषियों के शब्दों का रुढ़ार्थ न करके यौगिक अर्थ लेने से ही उपरोक्त भाव प्रकट होते है अन्यथा पृथिवी को केवल हमारे सौर मण्डल का पृथिवी नामक ग्रह मानना एक भ्रान्ति है क्योंकि 'वेद' संकुचित नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के है । ब्राह्मण व निरुक्तादि  उस क्रियाविज्ञान के द्योतक ग्रन्थ हैं। ख). अन्तरिक्ष अन्तरिक्षं वै यजुषामायतनम् [ गो.ब्रा.पू. २.२४] अन्तरिक्षलोको यजुर्वेदः [ ष. ब्रा. १.५] अर्थात जो भी पदार्थ ' यजुः ' ऋचासम्पन्न हो वह अन्तरिक्ष कहलाने योग्य हो सकता है और इसमें 'भुवः' व्याहृति की प्रधानता होती है। इसके विषय में आचार्य यास्क निरुक्त के द्वितीय अध्याय में कहते है - अन्तरिक्षं कस्मात् ? अन्तरा क्षान्तं भवति, अन्तरा इमे इति वा शरीरेष्वन्तः अक्षयमिति वा । जो धावापृथिवी के मध्य में स्थित हो वह अन्तरिक्ष है, उसमें स्थित पद वा देवता अन्तरिक्षस्थानीय देवता कहाते है । जो स्वभावतः प्रकाशित हो द्यावा तथा जो स्वभावतः अप्रकाशित हो वह पृथिवी नाम से भी कहे जाते है। । अतः इनके मध्य का भाग ही अन्तरिक्ष कहाता है। यथा - सूर्य (प्रकाशित) व पृथिवी ग्रह (अप्रकाशित) के मध्य का स्थान अन्तरिक्ष सञ्ज्ञा वाला होता है। ग). द्युलोक अर्चि: (आदित्यस्य ) सामानि ( श. ब्रा. १०.५.१.५ ) साम वा असौ ( द्यु ) लोकः (तां. ब्रा. ४.३.५ ) अर्थात् जिसमें 'साम' ऋचाओं की प्रधानता होती है वह द्युलोक कहलाता है। यहाँ पाठकों को ज्ञात है ऋक् व साम की साम्यता सर्वविदित है उसी भांति पूर्व वर्णनों में भी द्युलोक - पृथिवीलोक [ द्यावापृथिवी ] की साम्यता सर्वविदित है। अतः ब्राह्मणग्रन्थों व निरुक्त के आचार्यों का समन्वयपूर्वक विचार यही है कि ऋक्, यजुः, साम ऋचाओं की प्रधानता वाले पदार्थ व देवता क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युस्थानीय कहलाते है। चित्र 7. तिस्र एव देवता Tisra eva devta ध्यातव्य है कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अर्थर्ववेद का विभाजन भाषा के अनुसार ४ प्रकार का होता है परन्तु शैली की दृष्टि से ये ३ प्रकार ऋक्, यजुः, साम प्रकार के होते है जो किसी भी शैली के मन्त्र सर्वत्र अन्योन्य वेदों में प्राप्त हो सकते। वस्तुतः उस शैली की प्रधानता होने से उन्हें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के नाम से कहा गया तथा अथर्ववेद इन सबका मिश्रीभूत होने से पृथक् संज्ञा वाला प्राप्त हुआ। आशा है कि आपको षड् भावविकार shadbhav vikar उपयोगी और जानकारीपूर्ण लगा होगा। ऐसी ही उपयोगी जानकारी और मार्गदर्शन के लिए जुड़े रहें boks.in के साथ। आपका सहयोग और विश्वास ही हमारी प्रेरणा है।
चित्र 7. तिस्र एव देवता Tisra eva devta

ध्यातव्य है कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अर्थर्ववेद का विभाजन भाषा के अनुसार ४ प्रकार का होता है परन्तु शैली की दृष्टि से ये ३ प्रकार ऋक्, यजुः, साम प्रकार के होते है जो किसी भी शैली के मन्त्र सर्वत्र अन्योन्य वेदों में प्राप्त हो सकते। वस्तुतः उस शैली की प्रधानता होने से उन्हें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के नाम से कहा गया तथा अथर्ववेद इन सबका मिश्रीभूत होने से पृथक् संज्ञा वाला प्राप्त हुआ।

आशा है कि आपको षड् भावविकार shadbhav vikar उपयोगी और जानकारीपूर्ण लगा होगा। ऐसी ही उपयोगी जानकारी और मार्गदर्शन के लिए जुड़े रहें boks.in के साथ। आपका सहयोग और विश्वास ही हमारी प्रेरणा है।

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