विश्वामित्र नदी Viswamitra Nadi (very important for exam)

प्रिय विद्यार्थियों, इस पोस्ट में विश्वामित्र नदी Viswamitra Nadi की टिप्पणी व्याख्या हिंदी में है। यह देहली विश्वविद्यालय परास्नातक DU, M.A Sanskrit का previous year प्रश्न पत्र का उत्तर है।

विश्वामित्र नदी Viswamitra Nadi

हमें वैदिक साहित्य के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रत्येक मन्त्र व सूक्तों के पीछे किन्ही ऋषियों व देवताओं की भूमिका होती है तथा वह ऋषि भी किसी न किसी आख्यान से जुड़े होते है। वस्तुतः वह वैदिक आख्यान न तो सम्पूर्ण रूप से मानवीय इतिहास होते है और न ही कोरी कल्पना । उसी प्रकार वैदिक आख्यानों में विश्वामित्र – नदी संवाद के आधार पर विविध आख्यान ब्राह्मण ग्रन्थों व निरूक्त आदि में प्राप्त होते हैं जिसके विषय में कहा जाता है कि – विश्वामित्र, जो पैजवन [पिजवन नामक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न] के पुरोहित थे। किसी कारणवश मार्ग से होते हुए उन्हें विपाट् – शुतुद्री नामक दो नदी मिलती है। इसी के मध्य इन्द्र की स्तुति, नदियों से संवाद तथा उनके महत्वादि का वर्णन प्राप्त होता है। निरूक्त में भी इस प्रकार वर्णन प्राप्त होता है-

Viswamitra Nadi

Viswamitra Nadi चित्र 1

तत्रेतिहासमाचक्षते – विश्वामित्र ऋषिः सुदासः पैजवनस्य पुरोहितो बभूव । विश्वामित्रः सर्वमित्रः । सर्वं संसृतम्। सुदाः कल्याणदानः । पैजवनः पिजवनस्य पुत्रः । पिजवनः पुनः स्पर्धनीय जवो वा । अमिश्रीभावगतिर्वा । स वित्तं गृहीत्वा विपाट्‌छुतुद्र्योः सम्भेदमाययौ । अनुययुरितरे। स विश्वामित्रो नदीस्तुष्टाव । गाधा भवतेति । (निरु. 2.24)

क) विश्वामित्र

आचार्य यास्क विश्वामित्र के विषय में कहते है कि –

विश्वामित्र ऋषि: सुदासः पैजवनस्य पुरोहितो बभूव। विश्वामित्रः सर्वमित्रः । सर्व संसृतम्।

1. ऋषिः

‘ऋषिः’ पद वेदों व ब्राह्मण ग्रन्थों के अनिवार्य अंश हुआ करते हैं जिसके विषय में भ्रान्ति रहती है कि यह कोई ऐतिहासिक पुरुष है अथवा कोई विशेष पदार्थ। प्राणाः वा ऋषयः (ऐ. ब्रा. २.२७) ऋषयः = प्राणादयः पञ्च देवदत्त धनञ्जयौ च। (महर्षि दयानंद यजुर्वेद भाष्य १७.७९) प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, देवदत्त व धनञ्जय इन सप्त प्राणों को ही महर्षि दयानन्द व महर्षि ऐतरेय के मत में ऋषि माना गया है।

2. सुदासः

‘सुदासः’ पद भी विश्वामित्र के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ, जिसका अर्थ महर्षि यास्क ने किया है- सुदाः कल्याणदानः कल्याणं कमनीयं भवति (निरू. २.३) अर्थात् सुष्ठु व श्रेष्ठ रूप से दान क्रिया में संलग्न होता है वह सुदास विश्वामित्र होता है।

3. पैजवनस्य पुरोहितः

इसमें मुख्यतः दो पद हैं पैजवन और पुरोहित। सर्वप्रथम पैजवन शब्द का अर्थ समझाते हैं- पिजवन का पुत्र या उससे उत्पन्न। ऐतरेय ब्राह्मण के 39वें अध्याय के अनुसार पिजवन एक क्षत्रिय है, जो अति तीव्र तथा अति मन्द दोनों प्रकार के गुणों का प्रदर्शन करता है।

आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक अपने निरुक्त भाष्य के इस प्रकरण में ऐसा मानते हैं कि- “अब ‘पैजवन’ के विषय में यहाँ कहा गया है कि पिजवन नामक पदार्थ से उत्पन्न पदार्थ पैजवन कहलाता है और पिजवन उस पदार्थ का नाम है, जो प्रशस्त एवं क्षुद्र गति से युक्त होते हैं अर्थात् इनकी गति किसी अन्य पदार्थ की गति के साथ मिश्रित होकर न्यून वा अधिक नहीं होती अर्थात् इनकी गति किसी के साथ मिश्रित ही नहीं हो सकती। ऐतरेय ब्राह्मण के ३९वें अध्याय में पिजवन नामक क्षत्रिय पदार्थ की चर्चा है और यह भी चर्चा है कि भेदक शक्तिसम्पन्न तरंग वा कण क्षत्रिय कहलाते हैं। इस प्रकार पिजवन ऐसे कण वा तरंग हैं, जिनकी गति सदैव अपरिवर्तित रहती है।

Viswamitra Nadi

चित्र 2 Viswamitra Nadi

वर्तमान भौतिकी पर विचार करें, तो विद्युत् चुम्बकीय तरंगों की गति एक ही माध्यम में सदैव समान रहती है। सघन माध्यम में वास्तव में गति परिवर्तित नहीं होती, बल्कि विभिन्न कणों के द्वारा बार-२ अवशोषण एवं उत्सर्जन के कारण उसकी गति परिवर्तित होती हुई प्रतीत होती है। इस कारण सामान्य रूप से गामा किरणों को पिजवन कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त न्यूट्रिनो आदि कण भी इसी श्रेणी में आ सकते हैं। इस प्रकार पिजवन से उत्पन्न पैजवन का पुरोहित विश्वामित्र होता है। पुनः पुरोहित क्या होता है इसके विषय में तत्ववेत्ताओं का कथन है –

पुरोहितः पुरः एनं दधति (निरुक्त 2.12)

पुरस्तात्सर्वं जगद्दधाति छेदनधारणाकर्षणादिगुणांश्चापि तम् (पुरोहितम्) (द.ऋ.भा. १.१.१)

आधिभौतिक अर्थ ( प्रायः लोकशिक्षा ) में किसी राजा के वृहद् सोमयागादि में प्रधान निर्देशक जिसे कहा जा सकता है वह ‘पुरोहित’ कहलाता तथा विविध शासनादि नियमान्वेषण में जो सबसे मान्यता प्राप्त तथा अग्रणी विद्वान होता है उसे मुख्यतः ‘राजपुरोहित’ ऐसा कहा जाता है। कुछ विद्वान पैजवन को क्षत्रिय राजा तथा विश्वामित्र को उनका राजपुरोहित मानते हैं जिससे वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उपरोक्त वर्णन ऐतिहासिक है।

परन्तु यहां तक की चर्चा में यदि आचार्य अग्निव्रत जी का मंतव्य देखें जो आधिदैविक अर्थ ( प्रायः वैज्ञानिकार्थ ) तो यही स्पष्ट होता है कि पैजवन नामक पदार्थ वा कण (जिसे गामा किरणें तथा उससे उत्पन्न कहा, चूंकि गामा से उत्पन्न पदार्थ भी गामा सदृश गुण का परिचायक होता है) का पुरोहित, विश्वामित्र हैं। जिस प्रकार किसी राजा के आगे-आगे पुरोहित चलता है तथा अपनी शासन व्यवस्था चलाता है उसी प्रकार यह विश्वामित्र भी पैजवन नामक पदार्थ के आगे स्थित हो उसे खींचते हुए तथा दिशा निर्देश करता हुए चलता है। वस्तुतः यह वर्णन निरुक्त के अनुसार विश्वामित्र के विशेषण के रूप में प्राप्त होता है परंतु यास्क विश्वामित्र पद का भी निर्वचन करते हुए कहते हैं-

4. विश्वामित्रः सर्वमित्रः सर्वं संसृतम्।

अर्थात् वह विश्व का मित्र है जो सभी को एकत्व की भावना से समेटे हुए , उपकार भाव से कर्म करता है। जो निम्न भावना से युक्त है-

“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्॥”

वह भी विश्वामित्र कहलाता है। यदि ब्राह्मणग्रन्थों की ओर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि वहां विश्वामित्र पद का विशेष अर्थ है जो आधिदैविक अर्थ की ओर सङ्केत करता है –

वाग्वै विश्वामित्रः (कौ. ब्रा. १०.५)

वाचा वै वेदाः संधीयन्ते वाचा छन्दांसि वाचा मित्राणि संद‌धति वाचा सर्वाणि भूतान्यथो वागेवेदं सर्वमिति (ऐ.आ. ३.१.६)

इन पंक्तियो से विश्वामित्र को ‘वाक्’ कहा जा रहा है तथा वाक् के द्वारा वेद, छन्द, मित्र तथा सभी को धारण किया जा रहा है। अतः प्रसङ्गतः पैजवन पदार्थ को दिशानिर्देश करते हुए मुख्यतः विश्वामित्र उसे धारण ही करता है जो एक विशिष्ट गम्भीर चिन्तन का प्रतीक है जो प्रसङ्गतः वेद के मन्त्रों में आए विश्वामित्र की भूमिका से संयुक्त करके देखा जा सकता है। चूंकि विश्वामित्र ऋषि है और ऋषियों के द्वारा वेद मन्त्र कहे गए अतः जो किसी पद वा वाक्य को कहता है वह उस का धारण करने वाला भी होता है।

संभवतः कोई यह आक्षेप कर सकता है कि विश्वामित्र को वाक् कहा तथा वेदमन्त्र भी तो वाक् ही है तो यह चक्रवत् प्रतीत होने लगा कि वाक् के द्वारा वाक् का धारण तथा कथन किया जाता है, परन्तु यदि विश्वामित्र वाक् को परा वाक् माने (जो परा ओम् का वाचक होता है) तब सभी वेद मन्त्र पश्यन्ती वाक् है तो सूक्ष्म के द्वारा स्थूल का धारण किया गया है जो तर्कसङ्गत भी है ऐसा निश्चय होता है। रही बात विश्वामित्र के पुरोहित होने की तो सभी पदार्थों का धारक वाक् रश्मियाँ हो सकती है जिसे विस्तारभय से यहाँ उद्‌धृत नहीं किया जा रहा है। इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से ‘विश्वामित्र’ के विशेष विषय में सामान्य ज्ञान हो सकता है।

ख) नदी

इसके विषय में आचार्य यास्क कहते है –

” नदना इमे भवन्ति शब्दवत्यः ” (निरु. २.२४)

‘नदी’ पद ‘नद अव्यक्ते शब्दे च’ धातु से व्युत्पन्न होता। जिसका अर्थ अव्यक्त, जो पूर्णरूपेण प्रकट व व्याख्यायित न हो ऐसे शब्दों वा ध्वनियों को उत्पन्न करने वाली श्रृंखला व धारा का नाम नदी होती है। सामान्यतः हम पृथिवी नामक लोक के निवासी होने से उसमें जो जल की धाराएँ होते है उसे ही लोकप्रचलन में नदी कहते है। विशेष अवस्था में ज्वालामुखी से निकलने वाले लावा को भी आग की नदी कहा जा सकता है।

उसी प्रकार इस सौर मण्डल में विभिन्न ग्रह, उपग्रह में भी इस प्रकार की धाराएँ होगी जो सतत जलसदृश पदार्थ को बहाने वाली तथा ध्वनियाँ उत्पन्न करने वाली होती होंगी। उसका ज्ञान सामान्यतः प्राप्त नहीं होता जो शोध का विषय हो सकता है। उसी प्रकार सूर्य में भी विभिन्न प्रकार की धाराएँ होती है जो शब्दवती होती है जिसमें पदार्थों का सतत प्रवाह होता है उसे भी वैदिक साहित्य में ‘नदी’ कहते है। इस विश्वामित्र नदी संवाद में मुख्यतः 2 नदी विपाट् तथा शुतुद्री की चर्चा हमें प्राप्त होती है जो इस प्रकार है –

1. विपाट्

आचार्य यास्क कहते हैं-

आर्जिकीयां विपाडित्याहुः। ऋजीकप्रभवा वा ऋजुगामिनी वा, विपाड् विपाटनाद्वा विप्राशनाद्वा, विप्रापणाद्वा पाशा अस्यां व्यपाश्यन्त वसिष्ठस्य मुमूर्षतस्तस्माद्विपाडुच्यते।

आचार्य दुर्ग तथा आचार्य स्कन्दस्वामी ने ऋजीक का अर्थ पर्वत किया है। आर्जिकीयो [ऋजुगामिनी = सीधी गमनवाली] को विपाट् कहा गया है जो पर्वत से उत्पन्न होती है। प्रारम्भ में अकुटिल = सरल गतिवाली होती है तत्पश्चात् विपाटनाद्वा विप्राणाद्वा अर्थात् अपने तीव्र वेगप्रभाव से भूमि को पाटने वाली तथा सभी जगह प्राप्त होने से विपाट् कहलायी। ‘विपाशनाद्वा’ यह सभी पाप-पाशों से मुक्त करती है अतः विपाट् कहलाती है। इस निर्वचन ‘विप्राशनाद्वा’ यह सभी पाप-पाशों से मुक्त करती है अतः विपाट् कहलाती है । इस निर्वचन के विषय में यास्क ने एक इतिहास दिया है. जिसके अनुसार दुःख के कारण मरने की इच्छा वाले वसिष्ठ ने अपने पाप-पाश को इसमें फेक दिया इसी कारण यह विपाट् कहलाती है। आधिदैविकार्थ में यह सूर्यादि तारों के नाभिकीय संलयन में भूमिका निभाने वाली धारा है। जिसे ऐतरेय ब्राह्मण के 33 वें में भी पढ़ा जा सकता है।

2. शुतुद्री

इसके विषय में आचार्य यास्क कहते है-

शुतुद्री शुद्राविणी क्षिप्रद्राविण्याशु तुन्नेव द्रवतीति वा।

क) शुतुद्री शुद्राविणी क्षिप्रद्राविणी

अर्थात् तीव्रता पूर्वक गमन करने वाली धाराप्रवाह शुतुद्री कहलाती है। शु = क्षिप्रनाम (निघण्टु २.१५) क्षिप्रं कस्मात्? संक्षिप्तो विकर्षः। अर्थात् जो धाराप्रवाह संक्षिप्त रूप से, विकर्षित रूप से अथवा सङ्कुचित होकर बहे वह शुतुद्री कहलाती है। इस प्रकार शीघ्रतावाचक शुपूर्वक गत्यर्थक ‘द्रु’ धातु के अभ्यास से ‘ड’ और ‘ङीप्’ प्रत्यय लगकर शुतुद्री बनता है।

ख) आशु तुत्रेव द्रवतीति वा

अर्थात् चाबुक से ताड़ित किये हुए के समान शीघ्र गमन करती है (बहती है) अतः शुतुद्री कही जाती है। इस प्रकार ‘शु’ पूर्वक व्यथनार्थक ‘तुद् और गमनार्थक ‘दु’ धातु के योग से ‘ड’ और ‘डीप्’ प्रत्यय करके शुतुद्री बनता है । अतः विश्वामित्र नदी संवाद में विश्वामित्र ऋषि (मन्त्रदृष्टा) के रूप में तथा नदी नैघण्टुक देवता के रूप में प्रायः प्रयुक्त होते हैं-

बहुलमासां नैघण्टुकं वृत्तम्। आश्चर्यमिव प्राधान्येन। (निरु २.२४)

दैवत विभाजन

देवता मुख्यतः 2 प्रकार के होते है –

१). मुख्य देवता जो प्रधान देवता होता है। यथा- अग्नि।
२). नैघण्टुक देवता जो अप्रधान देवता है। यथा- अश्व।

अत्र प्रमाणं

नैघण्टुकमिति देवतानाम-प्राधान्येनेदमिति । तद् यद् अन्यदैवते मन्त्रे निपतति नैघण्टुकं तत् । ‘अश्वं न त्वा वारवन्तम् (ऋ० १०.२७.१)। अश्वमिव त्वा वालवन्तम् । वाला दंशवारणार्था भवन्ति । दंशो दशतेः।

उपरोक्त उदाहरण में प्रधान देवता अग्नि तथा अप्रधान देवता अश्व है जो मन्त्र में पढ़ा गया है। इन नदियों का वेदों में नैघण्टुक अर्थात् गौण वर्णन बहुलता से पाया जाता है अर्थात् उन वेदमन्त्रों में देवता कोई और होता है और नदीनाम गौण रूप से विद्यमान होता है। ऐसे मन्त्रों की संख्या ही अधिक होती है, जबकि जिन मन्त्रों में नदी प्रधान रूप से देवता के रूप में विद्यमान है, ऐसे मन्त्र वेदों में आश्चर्य के रूप में ही विद्यमान होते हैं अर्थात् ऐसे मन्त्र बहुत कम होते हैं।

FAQS

1)  विश्वामित्र कौन थे?
उत्तर- ऐतिहासिक रूप से एक राजर्षि।

2) विपाट् नदी में किसने पाप पाश को फेंका था?
उत्तर- वशिष्ठ ने

3) शुतुद्री में शु का अर्थ के अनुसार क्या है?
उत्तर- सङ्क्षिप्तार्थ में । शु इति क्षिप्रनाम। क्षिप्रः कस्मात्? सङ्क्षिप्तो विकर्षः।

4) विश्वामित्र नदी Viswamitra Nadi संवाद में प्रधानरूप से किसकी स्तुति की जा रही है?
उत्तर- इन्द्र की

5) विश्वामित्र, ऋग्वेद के किस मण्डल के ऋषि है?
उत्तर- तीसरे

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